धर्म या ईश्वर की अवधारणा मानव समाज के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी उसके लिए हवा। अपनी सारी उपलब्धियां और हार के लिए उसे कोई तो चाहिए जिसको वह इसका कारक बताये। खुद की गलतियों को स्वीकारना अत्यंत कठिन काम है, और लाभ के माध्यम को, लाभ का श्रेय देना उससे भी कठिन काम है, तो मानव ने एक प्रतीक, ईश्वर के रूप में चुन लिया। जो आपकी गलतियों, हार और हानि का जिम्मेदार है, आपके लाभ के हिस्सेदार को श्रेय देने से आपको बचाता है। यह वही है जो सामाजिक व्यवस्था में आपको असामाजिक होने से रोकता है क्योंकि वह सर्व व्यापी है सब जानता, देखता और समझता है, उसकी लाठी में आवाज नही होती और वह मृत्यु के बाद भी सजा देता है। मतलब वह ऐसा पुलिसवाला है जज है और जल्लाद है जो 24 घंटे आपके साथ रहता है और आपको व आपकी अंतरात्मा को अपराध करने से रोकता है। वही वह एक ऐसा पुरुस्कार देने वाला भी है जो 24 घंटे सातो दिन आपके नेक कामो का हिसाब रखता है और समय समय पर आपको इसके इनाम देता है या विपत्तियों से बचाता है। यह तो हुई सामान्य ईश्वर की अवधारणा, अब इसमें एक विशेष ईश्वर और एक अईश्वरवाद (नास्तिक) भी आ गया। विशेष ईश्वर वाद कह