धर्म या ईश्वर की अवधारणा मानव समाज के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी उसके लिए हवा।
अपनी सारी उपलब्धियां और हार के लिए उसे कोई तो चाहिए जिसको वह इसका कारक बताये।
खुद की गलतियों को स्वीकारना अत्यंत कठिन काम है, और लाभ के माध्यम को, लाभ का श्रेय देना उससे भी कठिन काम है, तो मानव ने एक प्रतीक, ईश्वर के रूप में चुन लिया।
जो आपकी गलतियों, हार और हानि का जिम्मेदार है, आपके लाभ के हिस्सेदार को श्रेय देने से आपको बचाता है।
यह वही है जो सामाजिक व्यवस्था में आपको असामाजिक होने से रोकता है क्योंकि वह सर्व व्यापी है सब जानता, देखता और समझता है, उसकी लाठी में आवाज नही होती और वह मृत्यु के बाद भी सजा देता है।
मतलब वह ऐसा पुलिसवाला है जज है और जल्लाद है जो 24 घंटे आपके साथ रहता है और आपको व आपकी अंतरात्मा को अपराध करने से रोकता है।
वही वह एक ऐसा पुरुस्कार देने वाला भी है जो 24 घंटे सातो दिन आपके नेक कामो का हिसाब रखता है और समय समय पर आपको इसके इनाम देता है या विपत्तियों से बचाता है।
यह तो हुई सामान्य ईश्वर की अवधारणा, अब इसमें एक विशेष ईश्वर और एक अईश्वरवाद (नास्तिक) भी आ गया।
विशेष ईश्वर वाद कहता है कि जो मेरी व्यवस्था, मेरी पद्धति और मेरी बाते न माने उसको जीने का हक़ नही है।
मैने जो कहा वही अंतिम सत्य है।।
और यहां से शुरू हुआ समाज मे न दिखने वाले ईश्वर के लिए की जाने वाली हिंसा का दौर ।
तीसरा वाद आता है नास्तिक वाद जो दुनिया के हर संविधान का मूल है यह कहता है कि जो करना हो करो, अगर पकड़े गए तो पुलिस, जेल और जज हैं।
वे निर्णय करेंगे।
तुमने जो किया है या नहीं किया है वह दिखाओ और सम्मान पाओ, पर अच्छा करने का लाभ और पुरुस्कार पाने के लिए तुम्हे अप्लाई करना होगा पर इसके बाद सर्वश्रेष्ठ को सम्मान यहीं मिलेगा परलोक में नहीं।
झूठ बोल के सम्मान पाया जा सकता है, छुप के अपराध किया जा सकता है पर अगर पकड़े गए तो सजा की संभावना है पर 100 अपराधी छूट जाए पर किसी बेगुनाह को सज़ा न हो।।
बात सही है, प्रत्यक्ष दंड के प्रावधान में आत्मग्लानि और परलोक का डर नही है और इस लोक को मैनेज करने की गुंजाइश है।
हम उस सामाजिक दौर में जी रहे हैं जिसमे तीसरी और दूसरी अवधारणा को मानने वाले असंख्य है पर पहली अवधारणा को सोचने में भी हमे डर लगता है कमतरी महसूस होती है।
हम बचते है पहली ईश्वरीय अवधारणा को समझने, विचारने या उसे उपयोग करने में।
यही समस्या है इस चिर सनातन धर्म और ईश्वर को मानने वाले इस देश की 🙏
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
सवाल पूछने का समय: अगर हम अपने समय और समाज को ज़रा ठहरकर देखें, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कोई अजीब-सी दौड़ लगी है। भाग-दौड़, होड़, लाभ-हानि, सत्ता, बाजार~ यह शब्द, आज सब कुछ साधने वाले शब्द बन चुके हैं, सारे मुद्दे और बहसें गोया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं। जब आप सवाल करते हैं कि "क्या यह वैश्विक व्यवस्था मानव समाजों, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और सांस्कृतिक आदर्शों को नजरअंदाज करती है?", तो उसका सीधा सा उत्तर निकलेगा~ हाँ, और यह सब बड़ी सुघड़ता के साथ, बड़ी सधी नीति के साथ, लगभग अदृश्य तरीके से होता आ रहा है। अब सवाल यह नहीं रह गया कि कौन सी व्यवस्था पिछली सदी में कैसी थी, क्योंकि अब तो यह नई शक्लें ले चुकी है~ तकनीक की शक्ल में, विकास की शक्ल में, नव-मानवतावाद की शक्ल में, और कभी-कभी खुद "मानवता" के नाम का झंडा लेकर भी! सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं और भाषणों के बीच कहीं हमारा पर्यावरण, हमारी सांस्कृति प्राकृति और हमारी अपनी परंपराएं बची रह गई हैं? "ग्लोबल ऑर्डर" और उसकी ताकत वैश्विक शासन व्यवस्था या जिसे fancy शब्दों में "ग्लोबल ऑर्डर" क...
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