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वैश्विक व्यवस्था को पर्यावरण संरक्षण हेतु सांस्कृतिक विकल्प

सवाल पूछने का समय:


अगर हम अपने समय और समाज को ज़रा ठहरकर देखें, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कोई अजीब-सी दौड़ लगी है। भाग-दौड़, होड़, लाभ-हानि, सत्ता, बाजार~ 

यह शब्द, आज सब कुछ साधने वाले शब्द बन चुके हैं, सारे मुद्दे और बहसें गोया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं। 

जब आप सवाल करते हैं कि "क्या यह वैश्विक व्यवस्था मानव समाजों, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और सांस्कृतिक आदर्शों को नजरअंदाज करती है?", तो उसका सीधा सा उत्तर निकलेगा~ हाँ, और यह सब बड़ी सुघड़ता के साथ, बड़ी सधी नीति के साथ, लगभग अदृश्य तरीके से होता आ रहा है।


अब सवाल यह नहीं रह गया कि कौन सी व्यवस्था पिछली सदी में कैसी थी, क्योंकि अब तो यह नई शक्लें ले चुकी है~ तकनीक की शक्ल में, विकास की शक्ल में, नव-मानवतावाद की शक्ल में, और कभी-कभी खुद "मानवता" के नाम का झंडा लेकर भी! 

सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं और भाषणों के बीच कहीं हमारा पर्यावरण, हमारी सांस्कृति प्राकृति और हमारी अपनी परंपराएं बची रह गई हैं?


"ग्लोबल ऑर्डर" और उसकी ताकत


वैश्विक शासन व्यवस्था या जिसे fancy शब्दों में "ग्लोबल ऑर्डर" कहा जाता है, वो अब सिर्फ हथियारों, बमों, उपनिवेशों, शासकों या नीति-निर्माताओं का हथियार नहीं है। अब इसका रंग-रूप बदल चुका है। अब यह "आर्थिकी", "टेक्नोलॉजी", "समावेशिता", "विश्व शांति", "ग्लोबल गवर्नेंस" जैसी शब्दावलियों का मुखौटा पहनकर धर्म और क्षेत्रीय संस्कृति पर आघात करती है।


लेकिन सच क्या है?  

असल में यह वही पुराना उपनिवेशवाद है~ बस उसका तरीका बदल गया है। अब वो सारी दुनिया की "सार्वभौमिकता" की बातें करके, यूनिवर्सल ह्युमन राइट्स, यूनिवर्सल डेवलपमेंट, स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग, सुगमता-सँवर्धन~ इन शब्द जाल और आदर्श के ज़रिए समाजों, व्यक्तियों के विचार बदलने में लगी है।


कौनसे आदर्श?  

वो एक ही आदर्श है~ नौकरी करो, खाओ, उपभोग बढ़ाओ, बाजार के हो जाओ, मुनाफा कमाओ, विकास की पटरी पर दौड़ो किसी धनी के लिए काम करो। इस दौड़ में पुराने रिवाज, त्योहार, स्थानीय मान्यताएं, पारंपरिक कृषि, समुदाय के अनुष्ठान, सब या तो विरोधी घोषित कर दिए गए हैं, या बस "पुराना सामान" मान लिए गए हैं।


नव-मानवतावाद और औद्योगिकरण


जिस नव-मानवतावाद की सबसे ज्यादा बात की जाती है, वह देखने में तो सुनहरा विचार लगता है~ "सब लोग एक हैं, साझा मानवता है, बराबरी चाहिए, समान अवसर चाहिए!" सुनने-देखने में तो क्या खूबसूरती है इसमें! पर सच यह है कि इसके पीछे छुपा हुआ 'समानता' का मतलब है~ सब अपना-अपना अलगपन छोड़ो, वैश्विक आदर्श अपना लो, उत्पादन की मशीन बन जाओ।


औद्योगिकरण?  

औद्योगिकरण केवल मशीनों का, फैक्ट्रियों का बढ़ना नहीं है। यह मानसिकता का औपनिवेशिकरण है। यह हमारे व्यवहार, इच्छा, आपसी संबंध, शिक्षा, त्योहार, रिश्तों~ सब पर आकर बैठ जाता है। 

दशकों से यह हुआ कि क्या खाएंगे~ कारखाने बताएंगे। क्या पहनेंगे~ दुनियाभर के ब्रांड देखकर ही तय होगा। किसे पूजा जाएगा~ जो मुनाफे का देवता है! 

ऐसे में पर्यावरण, मानवीय संबंध, प्रकृति-समभाव… सब धीरे-धीरे दिखावे में, भाषणों में, अकादमिक शोधों में सिमटकर रह गए।


क्या यह व्यवस्था प्रकृति-विरोधी है?


साफ तौर पर देखा जाए, तो हाँ~ यह व्यवस्था प्रकृति-विरोधी है।  

क्यों?  

क्योंकि प्रगति, लाभ, प्रतिस्पर्धा, विलासिता, उपभोग, सीमित प्राकृतिक संसाधनों का शोषण~ इन सबका मूल स्वभाव ही "अधिक चाहिए, जल्द चाहिए, सस्ता चाहिए" है। यह सोच कभी पेड़, जंगल, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों, और खुद मानव तन-मन के संतुलन की बात नहीं करेगी। केवल इतना पूछेगी~ "संसाधन कैसे बढ़ें? 

उत्पादन कैसे बढ़े? 

मुनाफा किधर है?"

यह ही समस्या है।

जो संस्कृति प्रकृति के साथ साक्षात्कार, संवाद, सामंजस्य, पूजा, या संरक्षण की धारणा रखती थी, उसे सांप्रदायिकता, पिछड़ापन, अवैज्ञानिकता, या 'भूत-प्रेत-टोटका' कहकर हाशिए पर डाला जाता है और इस विषय पर वैश्विक सरकार बड़ा खर्च भी करती हैं और क्षेत्रीय सरकारों को इस पर काम करने को मजबूर भी करती हैं। 

वास्तविकता यह है कि यही "पुरानी परंपराएँ" आज के विनाश से बचाने की अंतिम उम्मीद हैं।


जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएँ: जिम्मेदार कौन?


क्या जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़, प्राकृतिक असंतुलन~ ये किसी एक देश, कंपनी या व्यक्ति ने किया है? 

नहीं~ ये उस सोच का नतीजा है, जिसमें केवल आज, अभी, और 'मैं' का वर्चस्व हो गया है। 

लकड़ी जला लो, जंगल काट दो, नदी खोद डालो, ज़मीन खोखली कर दो~ क्योंकि बाजार को माल चाहिए था।  

तो जलवायु संकट, केवल मौसम का बिगड़ना नहीं है, यह सोच का दायरा सिमटना है।

यह भारतीय और अफ्रीकी समाज में "पाप" है।

समस्या यह है:  

अब कोई एक इंसान या संस्था ऐसा नहीं बची, जो कह सके, "मैं इसका हल हूँ, मेरे पास जवाब है!

" क्योंकि यह औपनिवेशिक सोच की व्यवस्था सबको जोड़कर, सबकी चेतना को बांधकर, हर तरफ फैली हुई है। सब इसके दोषी हैं, सब इसका शिकार हैं, सब इसके गुलाम हैं भी, और इसके संचालक भी। 

जब समाज ही 'सिस्टम' के हवाले हो जाए, तो संकट का जवाब कहीं और, किसी और में तलाशने के बजाय इसके भीतर ही खोजना और बदलना सबका जिम्मा हो जाता है:  


"जो सबके साथ होगा, वो मेरे साथ भी होगा यह विचार मजबूर और कमजोर व्यक्तित्व दिखाता है।"


भारतीय, अफ्रीकी और अन्य सांस्कृतिक परंपराएँ: विकल्प या केवल स्मृति?


अब सवाल उठता है~ क्या भारत और अफ्रीका जैसे देशों की सांस्कृतिक-धार्मिक परंपराएँ सचमुच पर्यावरण बचा सकती हैं?  

देखिए, इनसे बढ़कर और क्या उदाहरण चाहेंगे!  

हमारे यहाँ वन-पूजन है, नदी-पूजन है, चंद्र-सूर्य-अग्नि-वायु का सम्मान है, धरती माता-गौरैया-कछुआ-साँप-गाय~ मूल तत्वों तक पूजे जाते हैं। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि सदियों की सोच, सामूहिक चेतना, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व और साधुता का दर्शन है।  

अफ्रीका में भी गाँवों के सामाजिक ढांचे, कबीलाई आदर्श, सामुदायिक ज़िंदगी, कुदरत की लय के अनुसार ही गढ़े गए।  

जब भी पश्चिमी व्यवस्था इन देशों में आई, उसने सबसे पहले मध्यस्थता, अखंडता और सामूहिकता को तोड़ा है और पुरातन ज्ञान को अपमानित किया है ~ इन्होंने लगे हाथ, उपनिवेशवाद में शासक बने "धर्म" को स्थापित किया, स्थानीय परंपरा को कमजोर किया, जंगल-पहाड़-नदी को नष्ट किया।


परंपराओं और धर्म के शासक


अक्सर यह आरोप लगता है~ "धर्म ने कुछ नहीं किया, धर्म ही वजह बना पिछड़ेपन की।"  

हाँ, इस दृष्टि से देखना चाहिए कि वह किसका धर्म और संस्कृति है जिसने विकास के नाम पर विनाश परोसा? स्थानीय संस्कृति का 'धर्म' वो था जो नदी-गंगा को माँ मानता था, बरगद के पेड़ के नीचे सभा करता था, गाय के दूध को कृतज्ञता से स्वीकारता था, विष्णु-सूर्य के साथ-साथ पर्वों में किसान-बुनकर-शिल्पकार को सम्मान देता था।


किन्तु जब शासक धर्म आया~ अर्थात वह धर्म/प्रथा/राज जो शक्ति, नियंत्रण, उपनिवेश, सम्पत्ति के इर्द-गिर्द गढ़ी गई, तब स्थानीयता को 'अंधविश्वास', 'पिछड़ापन', 'बर्बरता' कहकर किनारे फेंक दिया गया। इस प्रक्रिया को 'रिवर्स' करने का वक्त अब है~ उसी औपनिवेशिक, विभाजनकारी, प्रकृति-विरोधी, मुनाफाखोर, शासक व्यवस्था को अपनी सनातनी जड़ों के मुताबिक सुधारकर उसे पर्यावरण और समाज के हिसाब से पुनर्जीवित किया जाना ही पर्यावरण-संरक्षण का सबसे बड़ा उत्तर है।


'ग्लोबल' बनाम 'लोकल': संघर्ष और समाधान


आज की विडंबना देखिए: वैश्वीकरण का नारा है~ "सब एक बाजार, सब एक समाज!"  

पर जमीन पर क्या हो रहा है? जमीन, आसमान और जल पर सामानों का वैश्विक परिवहन वातावरण प्रदूषित कर रहा है, नदियाँ जहरीली हो गई हैं, शहरों में साँस लेना मुश्किल हो गया है, तापमान बढ़ता जा रहा है, पानी की कमी बढ़ती जा रही है।


सवाल उठता है~ क्या केवल तकनीक से, या किसी नए अंतरराष्ट्रीय समझौते से, हम इस विनाशकारी प्रवृत्ति को रोक पाएंगे?  

नहीं!  

क्योंकि जिस मूल सोच में समस्या है, वही अगर न बदले, तो हम कैसे सफल होंगे?... 

और फिर जब 'लोकल' (स्थानीय सांस्कृतिक उपाय) की अनदेखी होगी, तो 'ग्लोबल' केवल दिखावा रह जाता है, और यह धर्म से लेकर प्रकृति तक सब बर्बाद करता है।


दिन-प्रतिदिन की ज़िंदगी में इसका असर


आज देखें तो हम जैसे लोग, शहर-गांव का फर्क मिटाते, पुराने रीति-रिवाजों को तिलांजलि देते, मोबाइल-डिजिटल वर्ल्ड के नागरिक बनते जा रहे हैं।  

क्या हम नए 'मानव' बन रहे हैं, या स्वर्ग के सपने में, बाज़ार के दास?  

क्या हमने अपने बच्चों को कभी ग्रामीण जीवन, पंचांग, ऋतुचक्र, पौधों के अर्थ, खेत-गांव के उत्सव, नदियों की पूजा सिखाई?  

नहीं~ अब वही ज्ञान "आउटडेटेड" है।  


अब रिपोर्ट तैयार होती है~ प्लास्टिक कैसे कम करें, पानी कैसे बचाएं, पर असली जवाब छुप जाता है: यह जवाब है, "लोक परंपरा को वापस लाओ सब बच जाएगा!"


"वापसी का समय"


आपने बिलकुल ठीक समझा:  

सबसे अहम बात यही है कि एक बार फिर समझदारी से सोचने, पुराने नियम-कानून, जो औपनिवेशिक/शासक हितों के लिए बने थे उन्हें बदलने का, और अपनी क्षेत्रीय परंपरा व प्रकृति-आधारित आदर्शों को पुनर्जीवित करने का समय है। यह 'वापसी' किसी प्रतिक्रिया या विरोध के लिए नहीं है, बल्कि 'संतुलित विकास' और 'सह-अस्तित्व' के लिए अनिवार्य हो चुकी है।


 सवाल: "हमें क्या?"


अगर कोई पूछे~ "इस सबका; मुझसे क्या मतलब?"  

मेरे भी यही मन में आता है~ "जो सबके साथ होगा, वही मेरे साथ भी होगा।"  

अगर नदियाँ सूखेंगी, मौसम बिगड़ेगा, बीमारी फैलेगी, समाज बिखरेगा~ तो मैं कैसे बच जाऊँगा?  

वैश्विक व्यवस्था से यह सवाल करना आज मजबूरी है~ 

"उत्तर क्यों चाहिए?"  

इसका अपरोक्ष रूप में यही मतलब है~ यह संकट सबका है, इसमें समाधान भी सबको मिलकर खोजना है, और जवाब भी लोक-परंपरा, क्षेत्रीय-विद्या, सामुदायिक जिम्मेदारी, प्राकृतिक चेतना में है~ not in corporate ads, reports and research.


निष्कर्ष: "किधर जाना है?"


इस पूरी बहस का सार यही है~  

1. औपनिवेशिक ताकतों द्वारा बनाए गए नियम, व्यवस्थाएँ, आदर्श~ आज भी हमारी चेतना, समाज, पर्यावरण, संबंध को निर्देशित कर रहे हैं।  

2. यह व्यवस्था प्रकृति-विरोधी है~ इसका जवाब और समाधान पर्यावरण-प्रेमी, सामुदायिक, क्षेत्रीय-सांस्कृतिक प्रथाओं में है।  

3. भारत और अफ्रीका की परंपराएँ~ जिन्हें अक्सर दकियानूसी कहा जाता है~ वास्तव में आज विज्ञान के युग में भी सबसे ज्यादा प्रासंगिक और पर्यावरण-संरक्षणकारी हैं।  

4. 'ग्लोबल' समाधान केवल दिखावा हैं, अगर 'लोकल' विरासत, लोक आस्था, लोक-ज्ञान, और लोक-संस्कार उपेक्षित रहेंगे तो न प्लास्टिक रुकेगा न औपनिवेशिक सोच कम होगी।  

5. अब समय है, उल्टा चलने का~ अपनी मेधा, अपने लोक विचार, अपने रीति-रिवाज, अपने जंगल, अपने खेत, अपनी नदियाँ, अपने उद्योग, अपने कुटुंब सब फिर से जगाने का, न कि "बिजली से चलने वाले उपकरणों के सहारे "मानव श्रम" को खत्म कर अंग्रेज होने का।


सवालों की मौलिकता जगाओ:


वैश्विक व्यवस्था से सवाल करो, उसकी सीमाएँ और छुपी-छुपाई चालें पकड़ो, अपनी मिट्टी और जड़ों से जवाब निकालो, और यह भरोसा रखो कि अगर वास्तव में सब बदल सकता है, तो वो केवल लोक-समाज, परंपरा, सनातन और धरती की मूल चेतना से ही होगा!


यह समय है कि हम विदेशी नहीं, अपने अपने स्वदेशी नजरिए से समस्याओं को देखना शुरू करें और समझें कि वैश्विक व्यवस्था के सुनहरे सपने कैसे घातक हैं, कैसे लोक संस्कृति, प्राकृति भारतीय और अफ्रीकी परंपराएं ही सच में मनुष्य और प्रकृति दोनों की खुशहाली का आधार हैं। जब सब कुछ बिगड़ रहा है, तो उत्तर किसी 'ग्लोबल' उद्यम या सम्मेलन से नहीं, बल्कि अपने खेत-खलिहानों, ग्राम-स्वराज, जंगल-नदी-पुरवा की रक्षा से मिलेगा।


"उत्तर सबको चाहिए, पर समाधान सबके साझा कर्म, साझा विचार और साझा पहचान में छुपा है।"  

दरअसल, समय है समझदारी से "बीते हुए कल" की ओर देखने का~ हमारी ही जड़ों में ही हमारा भविष्य पड़ा है, बाकी सब तो शोर है, धुंआ है, विज्ञापन है।

हमें खुद में ही इसे खोजना है।


सचिन अवस्थी

संस्थापक : विश्व विजया फाउंडेशन


टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Drkamaltaori @gmail.com

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