#सोशल_मीडिया
बुजुर्ग सोच के लोग जिन्हें लगता है कि सोशल मीडिया खेल है कुछ गलत लिख भी दिया तो जनता कुछ समय में भूल जाएगी ऐसे लोगों का अवसान तय है, लालू परिवार उनमे से 1 है।
मुलायम बचे रह सकते हैं, वे समझदार है पर यह उनका यह विपरीत समय है, नीतीश उत्तरोत्तर तरक्की करगें पर केजरी, ममता और लालू का अवसान तय है ।।
राहुल का पराभाव तय है और प्रियंका शायद वापसी कर लें अगर राहुल पूर्व की तरह वाड्रा के पीछे न पड़ें तो ।।
नेताओ सेलिब्रिटी और महत्वपूर्ण लोगो को तुरंत के गोल दिखते हैं, वे उन्हें अचीव करने के लिए तुरन्त जागते है और उन्हें अचीव करने के बाद सो जाते हैं, इसमे कॉन्ट्रोवर्सी से पायी गयी प्रतिष्ठा के लिए, जघन्य गलतियां सामान्य बात हैं, पर जब वही गलतियें और बयान पीछे पड़ते हैं तो राहुल को जनेऊ धारू ऊप्स धरी हिन्दू बनना पड़ता है।
सोशल मीडिया 1948 के सोमनाथ मन्दिर पर नेहरू के विरोध को खींच लाता है तो राहुल के लड़की छेड़ने के बयान की क्या बिसात है।
व्यवस्थाएं और संस्कार वही होते है जो हमारे डीएनए में हैं।
25 साल लगे कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान में घुसेड़ने में पर 40 सालो में इस शब्द को वह जनमानस के मन के अंदर न घुसेड़ पायी।
नेहरूवियन मतलब धर्मनिरपेक्षता + साम्यवाद 70 साल बाद खारिज हो रहा है पर
गांधी के रामराज्य की कोई काट नही है न ही सरदार पटेल के राष्ट्रवाद की।
इंदिरा का हिंदुत्व आरएसएस के हिंदुत्व से बड़ा था। इंदिरा के हिंदुत्व की काट करने में आरएसएस को दांतों तले पसीना आ सकता है।
इंदिरा का नारा "जात पर न पांत पर मोहर लगेगी हाँथ पर",
"सबका साथ सबका विकास" नारे से हमेशा बड़ा रहेगा।
पर शिंदे का हिन्दू आतंकवाद का नारा नेहरूवियन सोच और कांग्रेसी सोच से बड़ा हो गया और इसीलिए कांग्रेस खत्म होने की कगार पर है।
इन हिंदुत्व की मानसिकता विरोधियो (मैं सनातनियो की बात नही कर रहा) को खत्म करने और हमारे डीएनए को जाग्रत करने का काम #SocialMedia ने किया है।
अगर #सोशल #मीडिया न होता तो मोदी और ट्रम्प न होते।
सोशल मीडिया न होता तो नवाज़ पदच्युत न होते।
सोशल मीडिया न होता तो हाफिज सईद पाकिस्तान में राजनैतिक पार्टी बनाने का स्वप्न न देखता।
और न ही प्रातः जुटनीय केजरीवाल जी दिल्ली में 95.71% सीट कब्जा पाते।
इन सबने सोशल मीडिया का या तो फायदा उठाया है या भोगा है।
1- भावनाओ को समझना उसे उद्वेलित करना और वोट में बदलना कला है।
2- नोटेबन्दी GST मुद्दे थे पर भावनाये उसके विपरीत थी, इस बात को समझना सबके बस की बात नहीं ।
3- ओसामा जी और सईद साहब दिग्गी की भावनाये थी पर जनता का मुद्दा आतंकवाद और भ्रस्टाचार था तो उत्तर प्रदेश (गांधियों और मोदी विरोधियो के गृह राज्य) की मुस्लिम बहुल सीटें भी बीजेपी ने जीती ।
नोट: समस्या यह है कि आप, सपा, बसपा या कांग्रेस, किसी मे भी विविध विचारो को पार्टी मंच पर रखने की आजादी नही है।
इन पार्टियों में कोई कमेटी ऐसी नही जिसमे एक भी बंदा ऐसा हो जिसके खून में चाटुकारिता न हो, जिसे स्वलाभः के अलावा विचारधारा या लक्ष्य से कोई लेना देना हो।
बस यही लोग हैं जो #PIDI को रिट्वीट करते हैं।
यही लोग हैं जो अपने नेता को खुश करने के लिए उनकी गलती को भी सही बताने में लगे रहते हैं।
जबकि बीजेपी के सोशल मीडिया एक्सपर्ट्स नेताओ के ट्वीट की जगह विचारधारा पर चोट करते हैं।
मज़ाक बनाते है।
गम्भीर बातो को हवा में उड़ा देते हैं।
कम गंभीर बातो को कांग्रेस की टीम के साथ मिलकर प्रोमोट करते हैं और फिर शाम तक उसकी हवा निकाल देते हैं।
यही है #SocialMedia इसमे अगर दूरगामी लक्ष्य, मानवीय भावनाओ और खुला दिमाग आपके पास नही है तो आपका उलझना तय है।
यह वह तालाब है जिसमे आप छोटी छोटी मछली पकड़ रहे है और आपके गल को यकायक मगरमच्छ निगल ले और आप अगले सेकंड मगर के सामने होंगे।
सोशल मीडिया में एक शब्द बड़ा कॉमन है #भक्त ।
आप भक्तो को भक्त न माने ये वह अनुयायी है जिनके नबी के खिलाफ एक शब्द भी अगर किसी के मुंह से निकल जाए तो वे अमेरिका में बैठ कर भी वैसे ही नबी विरोधी विचारधारा को निपटा देंगें, जैसे चार्ली हेब्दो को निपटाया था ।।
ये सोशल मीडिया है #जानी यह #कुरुक्षेत्र का वह मैदान है जहां 24x7 365 दिन युद्ध लड़ा जा रहा है।
और एक पक्ष कैडर और वैचारिक प्रतिबद्धता से युक्त है और दूसरा चाटुकारिता से धन और ताकत प्राप्ति में भिड़ा हुआ है।
आप विचारें कौन है इनकी टक्कर में ।।
ॐ शांति
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
#हथौड़ा_पोस्ट
The narrative of entrepreneurial success has long been dominated by the image of the solitary innovator, the corporate titan forging an empire from sheer will and ingenuity. This "individual entrepreneurship" model, while undeniably powerful, has also contributed to a landscape of economic disparity and environmental strain. However, a quiet revolution is underway, a resurgence of collective entrepreneurship, embodied by cooperative models, that offers a compelling alternative for the 21st century. We've become accustomed to celebrating the titans of industry, the visionaries who build vast corporations, generating wealth and, ostensibly, jobs. Governments and systems often glorify these figures, their achievements held up as the pinnacle of economic success. Yet, a closer examination reveals a complex reality. The industrialization that fueled the rise of corporate entrepreneurship has also created a system where a select few can amass immense wealth by harne...
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