*अद्भुत अति अद्भुत*
यह कला ही है हाँ कला ही जिसे जन मन विकृति (Mass mind distortion) कहते हैं।
इस कला के पैटर्न को समझना आवश्यक है, मनुष्य गर्व, डर या आराम के लिए जीता है और मरता भी है बस यही 3 बिंदु इस कला को जीवित रखते हैं।।
आपसे कुछ प्रश्न है उत्तर दीजिये।
1- रिफाइंड आयल और वनस्पति घी क्यों खाते हैं?
2- प्लास्टिक क्यों उपयोग करते हैं?
3- रीठा या मुल्तानी मिट्टी से क्यों नहीं नहाते?
4- जमीन पर पत्तल पर क्यों नही खाते?
5- हर समय मिनिरल वाटर की बोतल ही क्यों?
कारण हैं गर्व, डर और आराम।
जान का डर हो या पैसे जाने का डर।
या जल्द मारने का डर या टेबल पर खाने का गर्व या वैभव का सुख और गर्व।
यही वह चीजे हैं जिन्हें बाज़ारवाद पुष्ट करता है।
आज डालडा से ज्यादा फायदा देसी घी की बिक्री में है तो वही सही है, पर वे उसे वैदिक पद्धति से नही बनाएंगे।
प्लास्टिक जब तक फायदे मन्द था खूब उपयोग किया अब आपको मार रहा है तो बन्द होना चाहिए?
हज़ारो साल से पत्तल में खा रहे थे जो कुछ वर्षों में बुरा हो गया और आपने उसे मान भी लिया क्यों?
किसपर विश्वास किया और किसपर अविश्वास यह कभी सोचा है?
कोका कोला शिकंजी से बेहतर क्यों और कैसे हुआ सोचें?
गेंहू, बाजरे और जौ से बेहतर था तो अब उसके गुटेन से क्या बुराई है?
गेंहू का फाइबर ही आपको क्यों चाहिए खुरदुरा अनाज तो जानवरो का अनाज कहलाने लगा था 🤣
सर्दी के टमाटर गर्मी में चाहिए थे तो कीट नाशक और उसके जीन में बदलाव किए अब कैंसर पर रो रहे हैं?
इस डर, गर्व और आराम के जन मन विकृति या *Mass mind distortion* के सिद्धांत से आपको क्या मिल रहा है और बाजार को क्या मिल रहा है यह कभी सोचा ही नही हमने।
कुर्सी ठंडे इंग्लैंड के लिए थी जो आपको ठंडी जमीन से दूर रखती थी आपने उसे पीठ दर्द का कारण बना लिया और काट डाले पेड़।
फायदा किसे हुआ आपको या बाज़ार को?
जिसे फायदा हुआ उसने भी अपना स्वास्थ्य और पर्यावरण खराब ही किया, जीवन शैली नष्ट कर ली।
दुकानों के तख्त हटे स्टूल आये पेड़ कम पड़े तो प्लास्टिक ले आये अब प्लास्टिक से बचने की कोशिश जारी है।
ऐसा ही रिफाइंड तेल, शराब, वनस्पति घी, जर्सी गाय, पोलिस्टर, पेट्रोल और असंख्य चीजो के साथ है, इस सब को आप बदलना चाहते हैं। 🤣
पर यदि कोई मित्र धोती कुर्ता पहना दिख जाए तो गंवार हो जाता है, फटी जीन्स पहने तो मोर्डन, कोई बिर्रा की रोटी परसे तो देहाती पर क्विनोआ की बात करे तो मोर्डन, अलसी का तेल बुरा था पर अलसी भूंज के खाना दिल के लिए उत्तम गर्वीला भोज्य है 🤣
ग़ज़ज़्ब सूतियापा है।
थोड़ा भारतीय संस्कृति को समझो थोड़ा अपने धर्म और वेद को वैज्ञानिकता पर परखो यहां सब मिलेगा तुम्हे।
हमारे ईश्वर को हमने साकार माना है तो उन्हें जो चढ़ता है वही सर्वश्रेष्ठ है,
शक्कर नही चढ़ती गुड़ चढ़ता है, नमक नही चढ़ता, सेंधा नमक उपयोग होता है।
गांधी के नमक सत्याग्रह के पहले कितने लोग नमक खाते थे पता करो?
कभी ईश्वर को किये जाने वाले अभिषेक की तरह हफ्ते भर मुंह धो कर देखो, अंतर समझ आ जायेगा।
1000 चीजे हैं दुनिया मे जो ये कम्पनियां हमे सिर्फ इसलिए बेंच रही है क्योंकि वे जन मन विकृति (Mass mind distortion) करने की कला जानती हैं 🤣
और हम सूतिया बनने में माहिर हैं 🤣
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
सवाल पूछने का समय: अगर हम अपने समय और समाज को ज़रा ठहरकर देखें, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कोई अजीब-सी दौड़ लगी है। भाग-दौड़, होड़, लाभ-हानि, सत्ता, बाजार~ यह शब्द, आज सब कुछ साधने वाले शब्द बन चुके हैं, सारे मुद्दे और बहसें गोया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं। जब आप सवाल करते हैं कि "क्या यह वैश्विक व्यवस्था मानव समाजों, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और सांस्कृतिक आदर्शों को नजरअंदाज करती है?", तो उसका सीधा सा उत्तर निकलेगा~ हाँ, और यह सब बड़ी सुघड़ता के साथ, बड़ी सधी नीति के साथ, लगभग अदृश्य तरीके से होता आ रहा है। अब सवाल यह नहीं रह गया कि कौन सी व्यवस्था पिछली सदी में कैसी थी, क्योंकि अब तो यह नई शक्लें ले चुकी है~ तकनीक की शक्ल में, विकास की शक्ल में, नव-मानवतावाद की शक्ल में, और कभी-कभी खुद "मानवता" के नाम का झंडा लेकर भी! सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं और भाषणों के बीच कहीं हमारा पर्यावरण, हमारी सांस्कृति प्राकृति और हमारी अपनी परंपराएं बची रह गई हैं? "ग्लोबल ऑर्डर" और उसकी ताकत वैश्विक शासन व्यवस्था या जिसे fancy शब्दों में "ग्लोबल ऑर्डर" क...
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