आज का प्रश्न ✔️
१- क्या स्त्री और पुरुष, गाय और बैल या शेर और शेरनी एक बराबर हो सकते हैं?
२- क्या दोनो की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएं व कार्यशैली समान हो सकती है?
3- क्या वे एक परिस्तिथि में एक समान निर्णय ले सकते हैं?
प्रश्न का उत्तर #हाँ_या_न में देना हो तो उत्तर न में ही आएगा।
पर कुछ लोग लेकिन, किंतु, बट, परंतु का उपयोग कर घंटो टाइम पास कर सकते हैं पर यह वे भी जानते हैं कि यह लेकिन और किंतु व्यर्थ की बकवास के सिवा कुछ नहीं है।
नर प्रजातियें जो पशु योनि से जन्म लेती हैं स्त्री के साथ वैसा ही बर्ताव करती हैं जैसा पुरातन पुरुष।
ईश्वर ने भी महिलाओं को, बच्चो समाज और परिवार के लिए #समर्पित बनाया है और पुरुषों को #उच्छंखल ।
ऐसा क्यूँ?
मानव इतिहास में समाजीकरण एक वृहद विषय है।
कोई भी पशु (मानव, पशुश्रेष्ठ है) चाहे वह स्त्री हो या पुरुष स्वावलम्बी होता है, पर महिला पशु स्वावलम्बी से ज्यादा होती है, वह बच्चों के उदरपोषण, सुरक्षा और उन्नयन के लिए भी समर्पित होती है।
जबकि पुरुष पशु उच्छ्रंखल होता है वह स्वार्थी और कामुक होता है।
मानव सामाजिक जीवन मे यह क्रम टूटा है इसे टूटना भी चाहिए पर इससे इतर जब औद्योगीकरण के दौर में इस ईश्वरी लैंगिक भेदभाव को जब हमने मथ दिया तो यह बुरी तरह टूट गया।
आज औद्योगीकरण के युग मे, पश्चिम में परिवार नाम की कोई चीज बची नहीं, रिश्ते समाप्त हैं और यह सब किया धरा सरकारों का है।
गांव प्रधान तो होता है पर घर का मुखिया, समाज का मुखिया अब समाप्त हो गए। ग्राम प्रधान भी सिर्फ सरकारी योजनाओं और व्यवस्थाओ पर निर्णय ले सकता है पर सामाजिक निर्णय उसके भी बस में नहीं हैं।
संपत्ति में बिटिया और बहू का अधिकार अब दोनों परिवारों के बीच की खाई है।
अब संयुक्त कमाई से चलने वाले घर सिर्फ #HUF (हिन्दू संयुक्त परिवार) के नियम के चलते कुछ वणिक परिवार ही बचे हैं।
अगर सरकार अभी भी नहीं चेती और सनातन सामाजिक व्यवस्था न लागू की तो, तय माने कि एकल परिवारों के बढ़े खर्च और महत्वाकांक्षाये, वह किसी रोजगार योजना से पूर्ण न कर पायेगी।
इसका कारण -
यह कानूनी स्थिति सस्टेनेबल लाइफ स्टाइल की विरोधी है।
और आने वाला समय कहता है कि सस्टेनेबल लाइफ स्टाइल को अपनाना हमारी मजबूरी है।।
इसके लिए हमे सिर्फ #CRPC ही नहीं बदलना है बल्कि सरकार को संवैधानिक संस्थानों का विकेंद्रीकरण भी करना होगा।
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
सवाल पूछने का समय: अगर हम अपने समय और समाज को ज़रा ठहरकर देखें, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कोई अजीब-सी दौड़ लगी है। भाग-दौड़, होड़, लाभ-हानि, सत्ता, बाजार~ यह शब्द, आज सब कुछ साधने वाले शब्द बन चुके हैं, सारे मुद्दे और बहसें गोया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं। जब आप सवाल करते हैं कि "क्या यह वैश्विक व्यवस्था मानव समाजों, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और सांस्कृतिक आदर्शों को नजरअंदाज करती है?", तो उसका सीधा सा उत्तर निकलेगा~ हाँ, और यह सब बड़ी सुघड़ता के साथ, बड़ी सधी नीति के साथ, लगभग अदृश्य तरीके से होता आ रहा है। अब सवाल यह नहीं रह गया कि कौन सी व्यवस्था पिछली सदी में कैसी थी, क्योंकि अब तो यह नई शक्लें ले चुकी है~ तकनीक की शक्ल में, विकास की शक्ल में, नव-मानवतावाद की शक्ल में, और कभी-कभी खुद "मानवता" के नाम का झंडा लेकर भी! सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं और भाषणों के बीच कहीं हमारा पर्यावरण, हमारी सांस्कृति प्राकृति और हमारी अपनी परंपराएं बची रह गई हैं? "ग्लोबल ऑर्डर" और उसकी ताकत वैश्विक शासन व्यवस्था या जिसे fancy शब्दों में "ग्लोबल ऑर्डर" क...
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