#सुधार की #प्रक्रिया का #मुख्य सूत्र #क्रमिक सुधार है।
और इसका #सार्वभौमिक #लक्ष्य #संपूर्ण #शोधन ही होता है...
यह #मानव के #स्वास्थ्य का सुधार हो या #प्रकृति या #व्यवस्था का सुधार।।
परंतु #जीवित वस्तुओ में #संपूर्ण सुधार #असंभव है, कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है, परंतु #व्यवस्थागत सुधार संभव है।
हर सुधार #समष्टि के हित (सभी के लाभ) में हों यही आवश्यक है; #व्यष्टि (व्यक्तिगत) का चिंतन आत्म उत्थान और अनुशासन हेतु होना चाहिए।।
#वामपंथ और #अंग्रेजियत ने करोड़ों की जिंदगी नर्क कर रखी है।
उन्होंने जिस व्यवस्था का निर्माण किया है वह व्यवस्था #व्यष्टी के हित को #प्राथमिकता देती है और समष्टि के हित को #नजरंदाज करती है।।
यह मानती है कि
#व्यक्तिक #धन और #सुख प्राप्ति हेतु पूर्ण विश्व और समाज को कष्ट दिया जा सकता है,
सैकड़ों जगह यह #कानूनी भी है।
भोजन और खाद्य श्रृंखला से लेकर वस्त्र, स्वास्थ्य और रहवास तक की व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति, संस्था या देश के #अधिलाभ का ही चिंतन है, यह चिंतन स्थापित और व्यवस्थित रहे इसीलिए ही तो हम #युद्धरत, #संघर्षरत और #तनावग्रस्त हैं।।
कहीं भी जाइए - हर जगह हम सिर्फ #स्वेच्छाचारी होना चाहते हैं...
पर किसी और को स्वेच्छाचारी होते नहीं देख सकते।
और इसी स्वेच्छाचारिता को खत्म करने के लिए और समाज में #समरसता बनाये रखने के लिए ही तो सामाजिक नियम होते हैं।
ये नियम या कानून ऐसे बनाए गए हैं कि अदालतें भी इसका #निजहित में चिंतन करती हैं।
पेंडिंग केस निपटान हेतु, जज हो या तहसीलदार, दरोगा हो या मंत्री - सभी आदर्श का चिंतन न करते हुए निज हित का ही चिंतन करते हैं।।
इसका कारण भी साफ है कि हम आजीविका हेतु काम करते हैं।
#पुरातन भारतीय #वर्णव्यवस्था में हम अपने जीवन के ज्यादातर कार्य या तो #धार्मिक रूप से करते थे या उसे #उत्सव बना देते थे।
आज भी हमारे समाज में ऐसे कई धार्मिक नियम जिंदा हैं जो सिर्फ समष्टि हित में हैं और जिनका आज कोई व्यक्तिगत आर्थिक हित नहीं है।।
यदि हम, हर चीज को अर्थ, लाभ और व्यष्टि हित में सोचेंगे तो ज्यादा दिन पृथ्वी को बचा नहीं पायेंगे।।
सामाजिक सोच को बदलना होगा, इसे फिर धर्म से अर्थात समष्टि से जोड़ना ही होगा अन्यथा न हम बचेंगे न पृथ्वी।।
#अलख_निरंजन
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
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