सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रतिव्यक्ति आय और सरकार.......


प्रतिव्यक्ति आय और सरकार.......
भारतीय अर्थव्यवस्था का आंकलन हमेशा से अर्थ शास्त्री करते रहे हैं और उसे सरकारें अपने नफे और नुकसान से जोड़ती आई हैं, राष्ट्रीय आय, प्रतिव्यक्ति आय जैसे कुछ शब्दों का उपयोग सरकार हमेशा से भ्रम फैलाने के लिए करती हैं....
राष्ट्रीय आय वह आय होती है जिसमें सारे देश के द्वारा अर्जित आय का योग होता है .
और प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय आय मे जनसंख्या का भाग देने से प्राप्त होती है.
सरकारें राष्ट्रीय आय और प्रतिव्यक्ति आय को जानता की तरक्की से जोड़ कर देखती हैं.
आज देश की ७५% भूमि २५% लोगों के पास है और ७५% लोग २५% जमीन के मालिक हैं.
यही हालत उद्योग जगत की है यहाँ १५० परिवारों के पास देश की आधी से ज्यादा उत्पादन इकाइयां हैं और बाकि पूरे हिन्दुस्तान के व्यव्सायीयों के पास आधी से भी कम.
आज़ादी के बाद ३ दशकों तक विकास दर ३.५% थी, ८० मे ३%, ९० मैं यह ५.४% रही, २००० से २००७ सन तक ६.९% प्रति वर्ष रही. प्रति व्यक्ति आय ५% प्रतिवर्ष बड़ी. लेकिन विकास दर बदने से न तों बेरोजगारी कम हुई न गरीबी.
सरकारी आंकडे बताते हैं की उत्पादन बड़ा है लेकिन रोज़गार कम हुए हैं. इसका कारण पूँजी प्रधान तकनीक है. यह एक बहुत बड़ा पूँजी वादी षड्यंत्र है. किसी एक व्यक्ति की खुशहाली को पूरे देश की खुशहाली से कैसे जोडा जा सकता है.
आप ही सोचें अम्बानी बंधुओं ने अगर साल मे १०० करोड़ रु कमाए और राम और रहीम ने १ लाख तों इन चारों की प्रतिव्यक्ति आय २५ लाख २५ हजार रु हुई क्या ये आंकलन सही है.
आज पूँजीवादी इन्ही भ्रामक आंकडो का सहारा ले कर सरकारों से मन माने नियम बनवाते हैं,
आर्थिक विकास को उत्पादन से, प्रतिव्यक्ति आय और राष्ट्रीय आय से जोड़ना हमेशा सही नहीं है.
आप ही सोंचे...
शराब के उत्पादन, विलासिता की वस्तु जैसे महंगी कार, एसी के उत्पादन में वृद्धि को आर्थिक विकास से जोडा जाता है. अगर पिछले वित्तीय वर्ष में शराब की दुकाने व उत्पादन २५% बड़ा तों शराब व्यवसाई की आय भी २५% बढेगी पर गरीब शराब पीने के लिए अपने घर का सामान बेंचेगा. और वर्षांत में सरकार कहेगी की शराब उद्योग के सहयोग से राजकीय आय और प्रतिव्यक्ति आय में क्रमशः १५% और ५% बढोतरी हुई.
सरकारों को गरीब के दर्द को समझना चाहिए उसकी मुसीबतों को समझना चाहिए न की आंकडों से खेलना उन्हें शोभा देता है.
आज भारत की ब्लू चिप कम्पनियो के सिर्फ ४.५% शेयर छोटे निवेशकों के पास हैं ज्यादातर बड़ी होल्डिंग्स विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास हैं इन कम्प्निओं से प्राप्त आय जाती तों विदेश है पर इसकी गड़ना होती राष्ट्रीय व प्रतिव्यक्ति आय में हैं.
पिछले दिनों अंतर राष्ट्रीय खाद्यान नीति शोध संस्थान ने भारत को आगाह किया है की अन्न उत्पादन के मामले में अब वह सबसे कम विकसित देशो की श्रेणी में आ गया है.
१८० देशो की इस सूची में पाकिस्तान ८८ वे स्थान पर भारत ९४ वे स्थान पर और चीन ४७ वे स्थान पर है. नेशनल सैम्पल सर्वे कहता है पश्चिम बंगाल, असाम और ओदिसा मे सबसे ज्यादा लोग भूखे सोते हैं. देश की १/३ आबादी दो वक्त के भोजन को महरूम है.
उद्योग तों बड़े है लेकिन रोज़गार कम हुए हैं.
इसपर सरकारों को ध्यान देना चाहिए.
अवस्थी.एस

टिप्पणियाँ

दीपक ने कहा…
कडवा सच है ,कृपया से आरकुट मे भी पोस्ट करे !!
Jayshree varma ने कहा…
कहा जाता है कि कलम तलवार से ज्यादा ताकतवर होती है....जरुरत है शब्दों को जोर से दहाडने की.... क्योंकि, शब्द में शक्ति होती है......सचिन जी, आपने भारतीय अर्थव्यवस्था का आंकलन सही लगाया है जो हमारे बौद्धिक अर्थशास्त्री लगाते रहे है.....विभिन्न परिस्थितियों से जुडी भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भों के मूल में यदि जाएं तो एक प्रमुख यथार्थ स्पष्ट रूप से नजर आता है कि विकास, सामाजिक न्याय, बाजार की शक्तियों को प्रभावित करने वाले लक्ष्यों के बारे में भ्रम है, अनिश्चितता है। इसी भटकाव के कारण किसी भी रास्ते पर चला जाए या व्यवस्था को अपनाया जाए तो न तो आर्थिक समस्याओं का ही स्थायी हल होता है और न ही बाजार के बाहर रहने वाले वंचित वर्ग बाजार में प्रवेश कर पाते हैं। ऐसी लक्ष्यविहीनता और गलत नीतियों का नतीजा यह हुआ है कि पुरानी परिभाषाएं, मुहावरें और नियम-सभी अप्रासंगिक हो गए हैं और नई विकृतियां उभरकर बाजार में आई हैं। राष्ट्रीय आय को ही लें, जो किसी भी अर्थ में सारे राष्ट्र की सारी आमदनी नहीं है। इस पर कुछ ही लोगों की आय, संपत्ति और श्रम शक्ति का पृथक-पृथक एकछत्र अधिकार होता है। बचपन में एक रुपये में एक पसेरी चावल मिलता था। अब एक पसेरी के लिए ढाई से तीन सौ रुपये देने पडते है। महंगाई हिरण की तरह कुलांचे भर रही है और आमदनी है कि कछुए की चाल से चलती है। सरकार दावा करती है कि, राष्ट्रीय आमदनी में वृद्धि के साथ देशवासियों की भलाई और भौतिक कल्याण में वृद्धि होती है, सदैव सही और आवश्यक नहीं होता। राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय को विकास का प्रतीक बताना बहुत बडा सैद्धांतिक षडयंत्र है। विडंबना देखिए कि, सरकार कहती है कि शराब की दुकानें खुलने से राष्ट्रीय आय बढती है। आंकडों के सहारे भ्रामक और मिथ्या उपचार करना तथा गहरी मनोवैज्ञानिक चालों के आधार पर मनमाने नियमों का बनाना आज की व्यवस्था का विशेष गुण है।
आपका आलेख सोई हुई सरकार को जगा सकें यही उम्मीद है......आगे भी आप अपने प्रयास जारी रक्खें।
वंदे मातरम
जय हिंद

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भारतीयता और रोमांस (आसक्त प्रेम)

प्रेम विवाह 😂 कहां है प्रेम विवाह सनातन में? कृपया बताएं... जुलाई 14, 2019 रोमांस का अंग्रेजी तर्जुमा है - A feeling of excitement and mystery of love. This is some where near to lust. The indian Love one is with liabilities, sacrifices with feeling of care & love. The word excitement and mystery has not liabilities, sacrifices with feeling of care. प्रेम का अंग्रेज़ी तर्जुमा - An intense feeling of deep affection. मैंने एक फौरी अध्यन किया भारतीय पौराणिक इतिहास का ! बड़ा अजीब लगा - समझ में नहीं आया यह है क्या ? यह बिना रोमांस की परम्परायें जीवित कैसे थी आज तक ? और आज इनके कमजोर होने और रोमांस के प्रबल होने पर भी परिवार कैसे टूट रहे हैं ? भारतीय समाज में प्रेम का अभूतपूर्व स्थान है पर रोमांस का कोई स्थान नहीं रहा ? हरण और वरण की परंपरा रही पर परिवार छोड़ कर किसी से विवाह की परंपरा नहीं रही ! हरण की हुयी स्त्री उसके परिवार की हार का सूचक थी और वरण करती हुयी स्त्री खुद अपना वर चुनती थी पर कुछ शर्तो के साथ पूरे समाज की उपस्तिथि में ! रोमांस की कुछ घटनाएं कृष्ण के पौराणिक काल में सुनने म...

The Cooperative Catalyst: Reimagining Entrepreneurship for a Sustainable Future

The narrative of entrepreneurial success has long been dominated by the image of the solitary innovator, the corporate titan forging an empire from sheer will and ingenuity. This "individual entrepreneurship" model, while undeniably powerful, has also contributed to a landscape of economic disparity and environmental strain. However, a quiet revolution is underway, a resurgence of collective entrepreneurship, embodied by cooperative models, that offers a compelling alternative for the 21st century. We've become accustomed to celebrating the titans of industry, the visionaries who build vast corporations, generating wealth and, ostensibly, jobs. Governments and systems often glorify these figures, their achievements held up as the pinnacle of economic success. Yet, a closer examination reveals a complex reality. The industrialization that fueled the rise of corporate entrepreneurship has also created a system where a select few can amass immense wealth by harne...

उद्यमिता का पुनर्पाठ: सहकारिता और कॉरपोरेट मॉडल के बीच समय की कसौटी

(एक विश्लेषणात्मक आलेख) भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश में उद्यमिता की अवधारणा आर्थिक प्रगति का प्राणतत्व मानी जाती है, परंतु आज जब हम उद्यमिता की बात करते हैं, तो वह दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े मॉडल्स के बीच सिमटकर रह जाती है: व्यक्तिगत (#कॉरपोरेट) उद्यमिता और सामूहिक (#सहकारी) उद्यमिता।  ये दोनों ही मॉडल अपने-अपने तरीके से #रोजगार सृजन, संसाधन आवंटन और सामाजिक उन्नयन में भूमिका निभाते हैं, लेकिन इनके प्रभाव, लक्ष्य और सामाजिक स्वीकार्यता में जमीन-आसमान का अंतर है।  आइए, इन दोनों के बीच के विरोध, लाभ और भविष्य की संभावनाओं को समझें।कॉरपोरेट #उद्यमिता: पूंजी का #पिरामिड और सीमाएं-  औद्योगिक क्रांति के बाद से कॉरपोरेट उद्यमिता ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाई है।  यह मॉडल पूंजी, प्रौद्योगिकी और पैमाने की अर्थव्यवस्था पर टिका है।  भारत में भी 1993 के उदारीकरण के बाद कॉरपोरेट क्षेत्र ने अभूतपूर्व विकास किया।  आज देश के सबसे धनी व्यक्तियों की सूची में कॉरपोरेट घरानों के मालिक शीर्ष पर हैं, और सरकारें भी इन्हें #GDP वृद्धि, #टैक्स राजस्व ...