सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अनिवार्य मतदान है लोकशक्ति का शंखनाद : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

गुजरात विधानसभा ने अनिवार्य मतदान का विधेयक क्या पास किया, सारे देश में हंगामा मच रहा है| सारे देश से इस विधेयक का कोई संबंध नहीं है| यह सिर्फ गुजरात के लिए है| वह भी स्थानीय चुनावों के लिए ! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव तो जैसे अब तक होते हैं, वैसे ही होते रहेंगे| यदि उनमें कोई मतदान न करना चाहे तो न करे| सारे देश में अनिवार्य मतदान लागू करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि लोकसभा संसद उसकी अनुमति न दे|

फिर भी सारे देश में प्रकंप क्यों हो रहा है ? शायद इसलिए कि इस क्रांतिकारी पहल का श्रेय नरेंद्र मोदी को न मिल जाए| यह पहल इतनी अच्छी है कि इसके विरोध में कोई तर्क ज़रा भी नहीं टिक सकता| आज नही तो कल, सभी दलों को इस पहल का स्वागत करना होगा, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र् में यह नई जान फूंक सकती है| अब तक दुनिया के 32 देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था है लेकिन यही व्यवस्था अगर भारत में लागू हो गई तो उसकी बात ही कुछ और है| यदि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र् में मतदान करना अनिवार्य हो गया तो अमेरिका और बि्रटेन जैसे पुराने और संशक्त लोकतंत्र को भी भारत का अनुसरण करना पड़ सकता है, हालांकि भारत और उनकी समस्या एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत है| भारत में अमीर लोग वोट नहीं डालते और इन देशों में गरीब लोग वोट नहीं डालते|

भारत इस तथ्य पर गर्व कर सकता है कि जितने मतदाता भारत में हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं और लगभग हर साल भारत में कोई न कोई ऐसा चुनाव अवश्य होता है, जिसमें करोड़ों लोग वोट डालते हैं लेकिन अगर हम थोड़ा गहरे उतरें तो हमें बड़ी निराशा भी हो सकती है| क्या हमें यह तथ्य पता है कि पिछले 62 साल में हमारे यहां एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी, जिसे कभी 50 प्रतिशत वोट मिले हों| कुल वोटों के 50 प्रतिशत नहीं| जितने वोट पड़े, उनका भी 50 प्रतिशत नहीं| मान लें कि भारत में कुल वोटर 60 करोड़ हैं| 60 करोड़ में से मानों 40 करोड़ ने वोट डाले| यदि किसी पार्टी को 40 में से 10-12 करोड़ वोट मिल गए तो भी वह सरकार बना लेती है| दूसरे शब्दों में 115 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सिर्फ 10-12 करोड़ लोगों के समर्थनवाली सरकार क्या वास्तव में लोकतांत्रिक सरकार है ? क्या वह वैध सरकार है ? क्या वह बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है ? आज तक हम ऐसी सरकारों के आधीन ही रहे हैं|

लोकतंत्र् के नाम पर चल रहे इस छलावे से बाहर निकलने का रास्ता क्या है ? रास्ते तो कई हैं लेकिन सबसे पहला रास्ता वही है, जो गुजरात ने दिखाया है| देश के प्रत्येक वयस्क को बाध्य किया जाना चाहिए कि वह मतदान करे| बाध्यता का अर्थ यह नहीं है कि वह इस या उस उम्मीदवार को वोट दे ही| अगर वह सारे उम्मीदवारों को अयोग्य समझता है तो किसी को वोट न दे| परिवर्जन (एब्सटेन) करे, जैसा कि संयुक्तराष्ट्र संघ में सदस्य-राष्ट्र करते हैं| दूसरे शब्दों में यह वोट देने की बाध्यता नहीं है बल्कि मतदान केंद्र पर जाकर अपनी हाजिरी लगाने की बाध्यता है| यह बताने की बाध्यता है कि इस भारत के मालिक आप हैं और आप जागे हुए हैं| आप सो नहीं रहे हैं| आप धोखा नहीं खा रहे हैं| आप यह नहीं कह रहे हैं कि 'को नृप होई, हमें का हानि|' यदि आप वोट देने नहीं जाते तो माना जाएगा कि आप यही कह रहे हैं और ऐसा कहना लोकतंत्र् की धज्जियाँ उड़ाना नही तो क्या है ?

वोट देने के लिए बाध्य करने का वास्तविक उद्देश्य है, वोट देने के लिए प्रेरित करना| कोई वोट देने न जाए तो उसे अपराधी घोषित नहीं किया जाता और उसे जेल में नहीं डाला जाता लेकिन उसके साथ वैसा ही किया जा सकता है जैसा कि बेल्जियम, आस्ट्रेलिया, ग्रीस, बोलिनिया और इटली जैसे देशों में किया जाता है याने मामूली जुर्माना किया जाएगा या पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनाया जाएगा, सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, बैंक खाता नहीं खोलने देंगे या चार-पाँच बार लगातार मतदान न करने पर मताधिकार ही छिन जाएगा| इस तरह के दबावों का ही परिणाम है कि अनेक देशों में 98 प्रतिशत मतदाता वोट डालने जाते हैं| इटली में तो अनिवार्यता हटा लेने पर भी 90 प्रतिशत से अधिक मतदान होता है, क्योंकि मतदान करना अब लोगों की आदत बन गया है| मतदान न करना वास्तव में अपने मौलिक अधिकार की उपेक्षा करना है|

यदि भारत में मतदान अनिवार्य हो जाए तो चुनावी भ्रष्टाचार बहुत घट जाएगा| वोटरों को मतदान-केंद्र तक ठेलने में अरबों रूप्या खर्च होता है, शराब की नदियॉं बहती हैं, जात और मज़हब की ओट ली जाती है तथा असंख्य अवैध हथकंडे अपनाए जाते हैं| इन सबसे मुक्ति मिलेगी| लोगों में जागरूकता बढ़ेगी| वोट-बैंक की राजनीति थोड़ी पतली पड़ेगी| जो लोग अपने मतदान-केंद्र से काफी दूर होंगे, वे डाक या इंटरनेट या मोबाइल फोन से वोट कर सकते हैं| जो लोग बीमारी, यात्र, दुर्घटना या किसी अन्य अपरिहार्य कारण से वोट नहीं डाल पाएँगें, उन्हें कानूनी सुविधा अवश्य मिलेगी| यों भी सारी दुनिया में मतदान के दिन छुट्टी ही होती है| इसीलिए यह तर्क अपने आप रद्द हो जाता है कि गरीब आदमी वोट की लाइन में लगेगा या अपनी रोज़ की रोटी कमाएगा ?

जिस दिन भारत के 90 प्रतिशत से अधिक नागरिक वोट डालने लगेंगे, राजनीतिक जागरूकता इतनी बढ़ जाएगी कि लोग जनमत-संग्रह, जन-प्रतिनिधियों की वापसी, सानुपातिक प्रतिनिधित्व और सुनिश्चित अवधि की विधानपालिका और कार्यपालिका की मांग भी मनवा कर रहेंगे| जिस दिन भारत की संसद और विधानसभाओं में केवल ऐसे सदस्य होंगे, जिन्हें अपने क्षेत्र् के 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने चुना है, आप कल्पना कीजिए कि हमारा लोकतंत्र् कितना मज़बूत हो उठेगा| लोकतंत्र् को मजबूत बनाने के लिए यह जरूरी है कि 'तंत्र्' के साथ-साथ
'लोक' भी मजबूत हो| अनिवार्य मतदान लोकशक्ति का प्रथम शंखनाद है|

Dr. Vedik...

टिप्पणियाँ

36solutions ने कहा…
वैदिक जी से सौ प्रतिशत सहमत.


इस आलेख के लिए वैदिक जी एवं आपको धन्‍यवाद.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वैश्विक व्यवस्था को पर्यावरण संरक्षण हेतु सांस्कृतिक विकल्प

सवाल पूछने का समय: अगर हम अपने समय और समाज को ज़रा ठहरकर देखें, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कोई अजीब-सी दौड़ लगी है। भाग-दौड़, होड़, लाभ-हानि, सत्ता, बाजार~  यह शब्द, आज सब कुछ साधने वाले शब्द बन चुके हैं, सारे मुद्दे और बहसें गोया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगी हैं।  जब आप सवाल करते हैं कि "क्या यह वैश्विक व्यवस्था मानव समाजों, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और सांस्कृतिक आदर्शों को नजरअंदाज करती है?", तो उसका सीधा सा उत्तर निकलेगा~ हाँ, और यह सब बड़ी सुघड़ता के साथ, बड़ी सधी नीति के साथ, लगभग अदृश्य तरीके से होता आ रहा है। अब सवाल यह नहीं रह गया कि कौन सी व्यवस्था पिछली सदी में कैसी थी, क्योंकि अब तो यह नई शक्लें ले चुकी है~ तकनीक की शक्ल में, विकास की शक्ल में, नव-मानवतावाद की शक्ल में, और कभी-कभी खुद "मानवता" के नाम का झंडा लेकर भी!  सवाल यह है कि क्या इन योजनाओं और भाषणों के बीच कहीं हमारा पर्यावरण, हमारी सांस्कृति प्राकृति और हमारी अपनी परंपराएं बची रह गई हैं? "ग्लोबल ऑर्डर" और उसकी ताकत वैश्विक शासन व्यवस्था या जिसे fancy शब्दों में "ग्लोबल ऑर्डर" क...

भारतीयता और रोमांस (आसक्त प्रेम)

प्रेम विवाह 😂 कहां है प्रेम विवाह सनातन में? कृपया बताएं... जुलाई 14, 2019 रोमांस का अंग्रेजी तर्जुमा है - A feeling of excitement and mystery of love. This is some where near to lust. The indian Love one is with liabilities, sacrifices with feeling of care & love. The word excitement and mystery has not liabilities, sacrifices with feeling of care. प्रेम का अंग्रेज़ी तर्जुमा - An intense feeling of deep affection. मैंने एक फौरी अध्यन किया भारतीय पौराणिक इतिहास का ! बड़ा अजीब लगा - समझ में नहीं आया यह है क्या ? यह बिना रोमांस की परम्परायें जीवित कैसे थी आज तक ? और आज इनके कमजोर होने और रोमांस के प्रबल होने पर भी परिवार कैसे टूट रहे हैं ? भारतीय समाज में प्रेम का अभूतपूर्व स्थान है पर रोमांस का कोई स्थान नहीं रहा ? हरण और वरण की परंपरा रही पर परिवार छोड़ कर किसी से विवाह की परंपरा नहीं रही ! हरण की हुयी स्त्री उसके परिवार की हार का सूचक थी और वरण करती हुयी स्त्री खुद अपना वर चुनती थी पर कुछ शर्तो के साथ पूरे समाज की उपस्तिथि में ! रोमांस की कुछ घटनाएं कृष्ण के पौराणिक काल में सुनने म...

उद्यमिता का पुनर्पाठ: सहकारिता और कॉरपोरेट मॉडल के बीच समय की कसौटी

(एक विश्लेषणात्मक आलेख) भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश में उद्यमिता की अवधारणा आर्थिक प्रगति का प्राणतत्व मानी जाती है, परंतु आज जब हम उद्यमिता की बात करते हैं, तो वह दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े मॉडल्स के बीच सिमटकर रह जाती है: व्यक्तिगत (#कॉरपोरेट) उद्यमिता और सामूहिक (#सहकारी) उद्यमिता।  ये दोनों ही मॉडल अपने-अपने तरीके से #रोजगार सृजन, संसाधन आवंटन और सामाजिक उन्नयन में भूमिका निभाते हैं, लेकिन इनके प्रभाव, लक्ष्य और सामाजिक स्वीकार्यता में जमीन-आसमान का अंतर है।  आइए, इन दोनों के बीच के विरोध, लाभ और भविष्य की संभावनाओं को समझें।कॉरपोरेट #उद्यमिता: पूंजी का #पिरामिड और सीमाएं-  औद्योगिक क्रांति के बाद से कॉरपोरेट उद्यमिता ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाई है।  यह मॉडल पूंजी, प्रौद्योगिकी और पैमाने की अर्थव्यवस्था पर टिका है।  भारत में भी 1993 के उदारीकरण के बाद कॉरपोरेट क्षेत्र ने अभूतपूर्व विकास किया।  आज देश के सबसे धनी व्यक्तियों की सूची में कॉरपोरेट घरानों के मालिक शीर्ष पर हैं, और सरकारें भी इन्हें #GDP वृद्धि, #टैक्स राजस्व ...