#हथौड़ा_पोस्ट
24 तारीख से देख रहा हूँ प्रबुद्ध और स्थापित लोग लिख रहे है, यह मोदी का इंडिया है, मोदी ने भारत को बदल के रख दिया और ब्लॉ ब्लॉ ब्लॉ 😂
असल मे किसी भी चीज़ को देखने के 3 तरीके हैं।
1- अपने फायदे की नज़र से
2- दूसरे के फायदे की नज़र से
3- निष्पक्ष नज़र से
अधिकतर लोग तीसरे तरीके तक पहुंच ही नहीं पाते।
यह मोदी का भारत नही न ही यह #MODIfiedIndia है, यह वही पुराना चाणक्य, राम, पोरस, विक्रमादित्य, महाराणा और शिवाजी का भारत है।
संविधान के आगमन से इसमे कुछ फर्क आये थे, जो अब सुधर रहे हैं।
नेहरू के आगमन के बाद प्रधानमंत्री के स्वार्थ, देश और प्रजा से बड़े हो गए थे।
#प्रधानमंत्री को राजा के समान अधिकार नही थे और वह खुद को प्रजा का सेवक मानना नही चाहता था।
5 साल के लिए आने वाला राजा पहले खुद का घर भरना चाहता था।
बस इसीलिए शुरू हुई यह लूट और स्वार्थ की होड़।
4 अंग्रेज़ी अखबार जो लिखते थे वह दिन दो दिन बाद पूरे देश मे छपता था, और देश उसे ही सही मानता था।
और उन अखवारों के खबर नवीसों को जनता हरिश्चंद्र का अवतार मानती थी।
अब #सोशल_मीडिया है, जो खबर छपने से पहले ही दिखा देता है,
अब देश मे 1950 से 2010 की पुरानी व्यवस्था नही है अब सूचनाएं और सत्य 5 इंच की स्क्रीन पर बिखरा पड़ा है।
यह मोदी की नहीं #जिओ और गूगल की देन है।
अब 4 अंग्रेज़ी अखबार, आपकी बेईमानी और धूर्तता नहीं छुपा सकते।
इन अखबारों ने कश्मीरी पंडितो पर होने वाली दरिंदगी छुपाई थी,
अब यह असम्भव हैं।
इसे आप देश या जनमानस के जागरण से न जोड़ लेना, देश 1950 मे भी इतना ही जाग्रत था बस नहीं थी तो मोबाइल की 5 इंच की स्क्रीन और सूचनाएं।
अब उंगलियों की नोक पर खबर का भंडार है, इसीलिए Ravish Kumar और BDUTT की धज्जियां लोग रोज़ उड़ा रहे हैं।
अब आते हैं धार्मिक कट्टरता पर,
1950 में भी धार्मिक कट्टरता, सहिष्णुता और उदारता इतनी ही थी, यह किंचित भी कम या ज्यादा नहीं थी।
बस अगर कुछ कम या ज्यादा था तो वह थी सूचना और उसके पीछे का सत्य।
अगर 1947 में सोशल मीडिया होता तो डायरेक्ट एक्शन डे न हो पाता न गांधी उसे जस्टिफाय कर पाते, न नेहरू के नोबल प्राइस के सपने के चक्कर मे हिंदी चीनी भाई भाई होता, न अटल, कारगिल के बाद पाकिस्तान को माफ कर पाते और बस यात्रा कर पाते।
नेताजी, गायब न होते न शास्त्री जी की मौत एक रहस्य होती।
पूरी दुनिया आज करेक्शन के दौर में है और इस करेक्शन का कारण है इंटरनेट।
भारत #MODIFy नही #नेटिफाई हो रहा है।
हम सतयुग की तरफ बढ़ रहे हैं, अब छल प्रपंचों का दौर समाप्ति की ओर है।
भ्रष्ट आचरण अब कम होंगे और वही चलेगा जो सत्य के ज्यादा करीब होगा।
अब नेता और अधिकारियों को 5 साल का राजा नहीं 5 साल का जन सेवक बनना मजबूरी होने जा रहा है।
इसलिए यह न माने की जनमानस कट्टर हो रहा है बल्कि यह माने की अब नेता जनमानस को मूर्ख नही बना पा रहे 🙏
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
The narrative of entrepreneurial success has long been dominated by the image of the solitary innovator, the corporate titan forging an empire from sheer will and ingenuity. This "individual entrepreneurship" model, while undeniably powerful, has also contributed to a landscape of economic disparity and environmental strain. However, a quiet revolution is underway, a resurgence of collective entrepreneurship, embodied by cooperative models, that offers a compelling alternative for the 21st century. We've become accustomed to celebrating the titans of industry, the visionaries who build vast corporations, generating wealth and, ostensibly, jobs. Governments and systems often glorify these figures, their achievements held up as the pinnacle of economic success. Yet, a closer examination reveals a complex reality. The industrialization that fueled the rise of corporate entrepreneurship has also created a system where a select few can amass immense wealth by harne...
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