#हथौड़ा_पोस्ट
बड़ा गड़बड़ है भई,
भयंकर संघी भी यह मान रहे हैं कि @BJP4INDIA
मुस्लिम तुस्टीकरण के रास्ते चल पड़ी है।
सरकार संघ की विचारधारा से भटक गई है।
यह सच नहीं है, यह अखबारों की खबरों और प्रोपोगेंडा का असीमित प्रभाव है।
मैं इन प्रचण्ड संघियो से असहमत हूँ।
संघ पिछले 65 सालो में देश की बड़ी संस्थाओ में घुसने में असफल था, अटल जी आडवाणी जी ने सरकार या बड़े संवैधानिक पदों में हार्डकोर संघियो को बिठाने की हिम्मत नही की, मोदी ने राष्ट्रपति से लेकर कई राज्यो के मुख्यमंत्री ही संघ से उठाकर बनाये।
अटल जी के समय संघ और सरकार का झगड़ा हमेशा खबरों में रहा, दत्तोपंत ठेंगड़ी तो सरकार की नाक में नकेल डाले रहे।
ऐसी एक भी घटना पिछले 5 सालों में नहीं हुई।
पहले संघ सरकार की गलतियां चिन्हित करता था, पर बिहार चुनाव में तो भाजपा ने संघ प्रमुख के बयान पर ही हार का ठीकरा फोड़ दिया।
यह परिवर्तन है, बड़े भाई के साथ जब छोटा भाई बराबर से कमाने लग जाये तो वे दोस्त हो जाते हैं।
यही हो रहा है, संघ और भाजपा भरपूर सामंजस्य के साथ विस्तार कर रहे हैं। सरकार में दोनों की भागीदारी है, संस्थागत संवैधानिक संस्थाओं में संघ के लोग भरे जा रहे हैं, यह संघियो को समझना चाहिए।
अब रही हिंदुत्व की विचारधारा से भटकने की बात तो
संघ में 2 वैचारिक धड़े हुए हैं, एक परमपूज्य गोलवलकर जी, जिनके बाद संघ में कोई गुरु नहीं हुआ।
दूसरी विचारधारा है वीर सावरकर की, हिंदुत्व की दोनों विचारधाराओ में बस एक फर्क है सावरकर का हिंदुत्व ज्यादा चतुर है वस्तुनिष्ठ है, ज्यादा हिंसक है, और गोलवलकर का कम।
याद करिये भागवत जी का वह बयान जिसमे उन्होंने कहा था संघ अब गोलवलकर जी के विचारों से बहुत आगे आ गया है।
तो क्या संघ सावरकर की विचारधारा के ज्यादा नजदीक हो रहा है?
हाँ यह सच है अब संघ चतुराई से काम कर रहा है।
व्यवस्था बदल रही है, अटल जी ने बड़ी मुश्किल से सावरकर की फ़ोटो संसद के सेंट्रल हॉल में लगवाई थी, अब मोदी छाती ठोंक कर सेल्युलर जेल घूम रहे हैं, सावरकर को महिमा मंडित कर रहे हैं।
क्या यह हिंदुत्व की विचारधारा का और कट्टर होना नहीं है?
राजनीति में संदेश और प्रतीकों का बड़ा महत्व है और मोदी ने सेल्युलर जेल से संदेश दे दिया है।
आप प्रतीकों के लिए आप संसद में, सत्तापक्ष में भगवा कपड़े पहने हुए सांसदों को गिन लें।
अटल जी ने कहा था जो एक बार स्वयम सेवक हो गया वह मरते दम तक स्वयम सेवक ही रहता है, अपनी सोच नही बदल सकता।
इसलिए निश्चिंत रहें, मोदी ने हुड़दंग रोकी है, गंभीर लोगो को नहीं रोका।
वजीफा दिया है तो मैकाले की शिक्षा पाने वालों को दिया है देवबंदियों को नहीं।
लेफ्ट से आप मल्लयुद्ध करके नहीं जीत सकते, लेफ्ट/सुडो सेक्युलर/ लिबर्ल्स से जीतने के लिए वैचारिक रूप से छद्म युद्ध ही करना पड़ेगा, जो वीर सावरकर की यू एस पी है, बस यही छद्म युद्ध चल रहा है।
एक बात और हिंदुत्व की स्थापना के पहले धर्म की स्थापना और उसका कैडर बनना जरूरी है।
उसपर भी काम चल रहा है।
जनजागरण ही तो संघ की यू एस पी है।
और अगर भागवत जी भाजपा से सहमत है तो भाजपा सही रास्ते पर है किसी को कोई चिंता करने की जरूरत नहीं।
मेरा अपना मानना है कि संघ पैसे और सत्ता के लिए काम नहीं करता वह विचारधारा और लक्ष्य के लिए काम करता है।
वह बिल्कुल वैसे ही एक एक सीढ़ी चढ़ रहा है जैसे आपके बच्चे डॉक्टर बनने के पहले, 5वी से 8वी तक संस्कृत पढ़ते हैं।
अभी संघ संस्कृत पढ़ रहा है 😜
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
The narrative of entrepreneurial success has long been dominated by the image of the solitary innovator, the corporate titan forging an empire from sheer will and ingenuity. This "individual entrepreneurship" model, while undeniably powerful, has also contributed to a landscape of economic disparity and environmental strain. However, a quiet revolution is underway, a resurgence of collective entrepreneurship, embodied by cooperative models, that offers a compelling alternative for the 21st century. We've become accustomed to celebrating the titans of industry, the visionaries who build vast corporations, generating wealth and, ostensibly, jobs. Governments and systems often glorify these figures, their achievements held up as the pinnacle of economic success. Yet, a closer examination reveals a complex reality. The industrialization that fueled the rise of corporate entrepreneurship has also created a system where a select few can amass immense wealth by harne...
टिप्पणियाँ