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शिव प्रसाद और बायो फ्यूल

गांजा एवं भांग- सनातन है ।।

आजकल तमाम डे मनाने का चलन है, ऐसे ही एक वर्ल्ड वीड डे मनाया जाता है। अबकी बार यह डे इस मायने में ऐतिहासिक हो गया की अगले ही दिन
हमारे रॉक स्टार प्रधानमंत्री जी वीड के साथ
ट्रेंड करने लगे।
हुआ यूँ की अपने कनाडा दौरे पर प्रधानमंत्री भीड़ को संबोधित कर रहे थे और
ऊर्जा के नए नए स्त्रोत पर काम करने की वकालत
कर रहे थे तो उनके मुँह से वीड एनर्जी शब्द निकल
गया, हालाँकि सब समझ ही रहे थे की बात विंड
एनर्जी की है लेकिन अगर प्रधानमंत्री वीड
एनर्जी की बात पर भी ध्यान दें तो बहुत भला
होगा।
वीड मतलब गाँजे से बायो फ्यूल भी बनता है।
वीड मतलब सामान्य बोलचाल वाली अंग्रेजी में
गांजा के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द, यानी
वही पौधा जो भांग और चरस भी देता है। वीड
हमारे देश की संस्कृति से जुड़ा हुआ है और अगर अनजाने में ही प्रधानमंत्री के मुँह से उसका नाम निकल गया है तो तय मानिए की उसके दिन बहुरने वाले हैं। अब इसका सेवन अमेरिका के 30 से ज्यादा राज्यों में लीगल हो चुका है और खुद ओबामा और ट्रम्प
भी कह चुके हैं की यह अल्कोहल जितना
नुकसानदायक भी नहीं होता। लेकिन कमाल
देखिये की जिस गांजे को लेकर अमेरिका में
सार्थक बहस चल रही है उसी के सेवन को भारत में
अमेरिका के ही दबाव में राजीव गाँधी सरकार
ने 1985 में प्रतिबंधित कर दिया था। गांजे को
नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस
एक्ट के तहत लाकर अवैध करवा दिया गया जिससे
स्मैक, हेरोइन तथा कोकीन जैसे ड्रग्स के पैर
महानगरों में जमे जो कई गुणा नुकसान और कई
गुणा अधिक मुनाफे वाली हैं। ये सीधे-सीधे मौत
की तरफ ले जाती हैं लेकिन वीड से मौत का
कोई प्रमाण नहीं मिलता। हाँ यह पोस्ट गांजे के
महिमामंडन के लिए नहीं है, बस बात निकली है
तो दूर तलक जायेगी। राष्ट्र को इस बात का
भी चिंतन करना चाहिए की इस जड़ी के लिए
मेक्सिकन स्लैंग मेरुआना क्यों इतना
लोकप्रिय हो गया जबकी गांजा का ही नाम
होना चाहिए था। हमें इस बारे में भी कैम्पेन
चलाना चाहिए, गांजे को उसका वाजिब हक़
मिलना चाहिए।
चीन में छ हजार ईसा पूर्व भी गाजे के प्रयोग के
प्रमाण मिले हैं यानी मानव सभ्यता का
सर्वाधिक प्राचीन ज्ञात फसलों में से एक है और
सनातनी परम्परा की बात करें तो वैदिक युग में
भी इसके प्रमाण मिलते हैं। कुछ विद्वान इसी के
पौधे से निकले रस को सोम रस कहते हैं लेकिन यह
उचित नहीं लगता क्योंकि सोम की तो सुना है
लता होती है या फिर कुछ भी हो सकता है
क्यों बहुत से लोगों ने तो अभी लता वाले गुलाब
भी नहीं देखे होंगे। वैसे गांजे के पौधे से जो रस
निकलता है उसे चरस कहते हैं और यह प्राचीन
काल में औषधीय उपयोग के काम आता था,
वर्तमान काल में भी इसी क्षमता को देखते हुए
इसे लीगल करने की मांग शुरू हुई और अमेरिका से
पहले ही तमाम देश जैसे कनाडा इसे लीगल कर भी चुके हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन में
जो अमृत निकला उसकी कुछ बूंदे धरती पर छलक
गयीं तो वहां से गांजे का पौधा उग गया वहीं
ज्ञानियों की एक धारा मानती है की अमृत
की पोटेंसी बहुत हाई थी जिसको बैलेंस करने के
लिए खुद भगवान शिव ने अपने शरीर से इसे उत्पन्न
किया और उनके अंग से निकलने के कारण इसे
‘अंगजा’ कहा गया जो समय बीतने के साथ
गांजा कहा जाने लगा। शिव के साथ चीलम को
इसी कथा के नाते जोड़ा जाता है और गांजा
परिवार की बूटियाँ शिव के प्रसाद के रूप में
ग्रहण की जाती हैं। हमारे देश का साधू समाज
और सेक्युलर समुदाय भी गांजा खींचते समय अलख
निरंजन या जागो भोले नाथ टाइप का घोष
करते हुए इसे शिव को समर्पित करता है। राजीव
गाँधी वाले एक्ट से गांजा भले प्रतिबंधित हो
गया लेकिन अभी भी तमाम राज्यों में सरकारी
भांग की दुकानें होती हैं जिनमें शंकर भगवान की
फोटो होती है, यह अलग बात है की उत्तर प्रदेश
आबकारी विभाग ने कुछ समय पहले यह निर्देश
दिया है की भांग की दुकानों से भोलेनाथ की
तस्वीरें हटाई जाएँ क्योंकि इससे तमाम लोगों
की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। कुछ लोग
कह रहे हैं की ऐसा निर्णय हिन्दुओं की नहीं
बल्कि मुसलमानों की भावनाओं का ध्यान रखते
हुए पास हुआ है, अब जो भी हो यह सरकारी
मामला है।
गांजा रखना और उसका सेवन भले ही अवैध
घोषित हो लेकिन शमशान घाट के फक्कड़ से लेकर
आईआईटी के हॉस्टल तक इसकी लोकप्रियता
किसी से छुपी नहीं है। बताया जाता है की
इसके सेवन से अलग किस्म की किक मिलती है।
साधु लोग कहते हैं की गांजा बूस्टर का काम
करता है जो नीचे की दुनिया से डिसकनेक्ट करके
सीधे ऊपर पहुँचा देता है। जितनी चिलम दहकती
है आत्मा उतनी ही ईश्वर के नजदीक पहुँचती है। दुनिया में जितना
भी गांजा मिलता होगा उसका एक बड़ा
हिस्सा हमारे साधु समाज के पास रहता है, कुछ
लोग तो इतने पहुँचे हुए होते हैं की उनकी चिलम
बुझती नहीं है। गाँव–गिरांव के मठ-मठिया पर
अधिकांश भगत लोग बस इसीलिए शाम होते
पहुँचने लगते हैं की बाबा जी के साथ कुछ दम लगा
सकें। कभी सोचा है आपने की जब प्रतिबंधित है
तो इन बाबाओं की झोली में कहाँ से पहुँच
जाता है? जहाँ तक आईआईटी या बड़े शिक्षा
संस्थानों की बात है तो उनकी स्थापना ही इस
हिसाब से हुई है की वहां स्वाभाविक रूप से इसके
पौधे उग सकें। कुछ टैलेंटेड छात्र इन पौधों की
देखभाल करते रहते हैं जो सीनियरों से विरासत में
मिलते हैं। फिर माल की प्रोसेसिंग और उनके सेवन
का अपना एक वैज्ञानिक तरीका होता है।
गांजे जैसी शुद्ध हर्बल चीज को प्रतिबंधित
करवाने में सिगरेट कंपनियों का भी बड़ा हाथ
रहा है लेकिन उन्हीं सिगरेटों में तम्बाकू झाड़ कर
कैम्पस मेड गांजा भरा जाता है फिर दुनिया भर
की उड़ान उसके कश के साथ ली जाती है।
जहाँ तक भांग की बात है तो इसका सेवन तो
डाइरेक्ट लाभप्रद होता है, अपने देश में ऐसे लोगों
की कमी नहीं जो बारहों महीने कुछ नहीं लेते
लेकिन शिवरात्री पर भांग का प्रसाद लेना
आवश्यक समझते हैं क्योंकि मान्यता है की इससे
शिवतत्व का संचार होता है। कहा भी गया है
‘गंग भंग दुई बहन हैं, रहत सदा शिव संग। पाप
निवारण गंग है, होश निवारण भंग।’’ कभी काशी
जाइए तो पता चलेगा की भांग को तैयार करना
खुद अपने आप में एक अध्यात्मिक प्रक्रिया है। वैसे
गांजे की चीलम भरना और जगाना भी एक
श्रद्धा का भाव पैदा करता है। हमारे समाज में
एक दिक्कत यह हो गयी है की गांजा–भांग अब
गरीबों की चीज समझी जाने लगी है और यह
केवल इसी के बारे में नहीं वरन किसी भी
स्थानीय वस्तु के बारे में हो गया है। जब तक कोई
माल या चलन विलायती न हो तब तक उसे इज्जत
नहीं मिलती, कितना पतन हो गया है समाज
का न? लेकिन धन्यवाद अमेरिका को जो उसने
हमारी सनातनी समझ पर मुहर लगाई है और अब
वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश में भी वीड एनर्जी
को वैधानिक मान्यता मिल जायेगी और फिजां
में फिर गूँजने लगेगा दम मारो, दम।
ऐसा भी नहीं है की इस द्रव्य पर केवल आर्याव्रत
की ही रिसर्च थी। चीन में इसके औषधीय और
व्यवसायिक उपयोग के प्रमाण हजारों साल पहले
से मिलते हैं। महान हान साम्राज्य के समय इसके
पौधे के रेशों से वस्त्र बनाने की कला भी
विकसित हो गयी थी यानी इतनी फायदे
वाली कोई और फसल है ही नहीं। तभी तो
अमेरिकी राष्ट्रपति जोर्ज वाशिंगटन के समय
अधिक से अधिक गांजा उगाने का निर्देश दिया
गया, वाशिंगटन खुद तम्बाकू के बड़े किसान थे
लेकिन उन्होंने गांजे के महत्व को भी स्वीकार
किया था। ब्रिटेन में भी महारानी एलिजाबेथ
प्रथम के समय आदेश था की बड़े किसान अपने खेत
के एक भाग में गांजा जरूर उगायें। अब आप कहेंगे
की चारो तरफ यह फसल फैली कैसे तो इस बारे में
कुछ लोग मानते हैं की कोलम्बस अपने साथ
गांजा ले कर अमेरिका गया उधर बर्लिन के पास
पांच सौ ईसा पूर्व के कुछ अवशेष मिले हैं जिनमें
भांग के बीज मिले हैं। उधर एक बड़ा वर्ग यह भी
मानता है की मार्कोपोलो अपने साथ चीन से
गांजा लाया था। कुल मिलकर यही लगता है की
कोलम्बस रहा हो या फिर मार्कोपोलो, सभी
ने गांजे की तासीर को समझ लिया था और
उसी का असर था की ये लोग कमाल कर गए
वरना आम इंसान की फितरत में कहाँ की वो कुछ
नाम कर जाए, किसी न किसी बूस्टर की जरूरत
पड़ती ही है भाई नहीं तो जमीन का
गुरुत्वाकर्षण रोके रहता है और अधिक उछलने नहीं
देता।

अंग्रेजों ने तो भारत में गांजा और चरस के भारी
इस्तेमाल को देखते हुए भारी टैक्स 1856 में ही
लगा दिया था। कुछ साल बाद ब्रिटिश संसद में
भारत में गांजा, भांग और चरस के इस्तेमाल पर और
उसके टैक्सेशन पर तीन हजार पेज से अधिक की
रपट प्रस्तुत की गयी जो इस विषय पर एक
ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसका निष्कर्ष था
की ‘मोडरेट’ इस्तेमाल से गांजा, भांग, चरस कोई
नुकसान नहीं पहुँचाता। हालाँकि उसके पहले मुग़ल
काल में भी कुछ बादशाहों ने इसके इस्तेमाल को
नियंत्रित करना का प्रयास किया था जबकि
बाबर खुद बाबरनामा में लिख चुका था की उसे
अफगानिस्तान में ही चरस का टेस्ट पता चल
गया था। अफगानी चरस वैसे भी दुनिया में हाई
क्लास की मानी जाती रही है। ब्रिटिश काल
में भारत में इसे नियंत्रित करने का प्रयास हो रहा
था तो उधर महारानी विक्टोरिया के निजी
चिकित्सक ने उनके मासिकधर्म की पीड़ा के
लिए इसका इस्तेमाल किया और यह ऑन रिकार्ड
आया की डॉक्टर यह कहता है की महारानी के
लिए उससे अच्छी औषधि और कोई भी उपलब्ध
नहीं है। महारानी चीलम तो नहीं खींचती
होंगी क्योंकि पहले ही कलकत्ते में पोस्टेड
आयरलैंड के डॉक्टर विलियम ब्रुक ने फक्कड़ों की
संगत में यह ज्ञान प्राप्त कर लिया था की
गांजा सुकून देने वाली चीज है और फिर उसने
वापस जाकर इस ज्ञान का गोरे मरीजों को
लाभ देना शुरू कर दिया था। शेक्सपियर के बारे में
भी कहा जाता है की वो दम लगाया करते थे
क्योंकि उनकी जो मिट्टी की पाइप मिली हैं
उसमें गांजे के अंश शोधकर्ताओं को मिले हैं। इससे
यही पता चलता है की केवल भारतीय विद्वान
ही गंजेड़ी नहीं होते बल्कि महान ब्रिटिश
साहित्यकार भी इसके पारखी थे। अंग्रेजों की
सोसाईटी में कभी इसका इतना प्रभाव बढ़ गया
की प्रतिबंधित करने का कानून पास करना
पड़ा। अमेरिका में भी एक ऐसा समय आया जब
मान्यता बन गयी की ‘कलर्ड’ को व्हाइट औरतों
को गांजा पिला कर मदहोश कर देते हैं और फिर
उसका बेजा फायदा उठाते हैं। वहां भी एलीट
क्लास दारू और सिगरेट ही पिता था वीड
थोड़ा वाइल्ड चीज समझी जाती थी, अब यह
पक्का भरोसा हो गया है की सिगरेट और दारू
कंपनियों की साजिश के चलते वीड को बदनाम
किया गया।
तो गांजा दुनिया भर में फैलने लगा था और
यूरोप की अधिकांश जनता मानने लगी थी की
यह मिडिलईस्ट से आया। यह पूरी तरह सच नहीं है
वैसे इस्लाम में नशा हराम है और साफ़ कहा गया
है की अपने हाथों खुद को बदनाम न करो लेकिन
अरब मुल्कों में भी गांजे और चरस के प्रति
दीवानगी बहुत थी। बीसवीं सदी के शुरू में
मिस्त्र और तुर्की के दबाव के चलते ही जेनेवा
कन्वेंशन ऑन नारकोटिक्स कंट्रोल में गांजे को
लाया गया क्योंकि हुक्कों में भी तम्बाकू के
बदले गांजा भरकर पीने वालों की जमात बढ़ती
जा रही थी। बाकी मध्यकाल में खुरासान के
हसन इब्न अल सबाह की चरस वाली लोक कथाएं
तो काफी लोगों को प्रेरणा देती रहीं। आलम
यह हो गया था की भले हराम कहा गया हो
लेकिन इलाके में चलन बहुत था। इलाके का कोई
मुल्क इसके प्रभाव से बचा हुआ नहीं था।
खुरासान के ही सूफी संत शेख हैदर के बारे में भी
कहा जाता है वो भी पक्के थे और दम लगा कर
ही ज्ञान बाँटते थे। बारहवीं सदी की ‘जहर अल–
अरिश फी तहरीम अल हशीश’ इस विषय की
जानी मानी किताब है। याद रहे की हशीश
गांजे के पेड़ से निकला रस होता है। अरब के
व्यापारी इसी समय इसे अफ्रीका के तरफ भी
फैलाने लगे थे, बाद में कभी दक्षिण अफ्रीका में
तो मजदूरों को दिन में तीन बार नियंत्रित
मात्रा में चरस दी जाने लगी ताकि वो अपनी
खदानों में भिड़े रहें।
गुरु नानक जी ने भी लिखा है की उन्होंने भी
भांग चखी लेकिन जब उन्हें प्रभु भगती लग गयी
तो भांग छूट गयी हालांकि गुरु गोबिंद सिंह के
समय ऐसा नहीं रहा। आनंदपुर की लड़ाई में वर्णन
मिलता है की जब दुश्मन का हाथी किले की
दीवार पर ठोकर मारने लगा तब गुरु जी ने भाई
बचित्तर सिंह को भांग खिला कर मैदान में उतार
दिया जिनके भाले की मार से हाथी पीछे भगा
और अपनी ही फ़ौज के लोगों को कुचलने लगा।
गुरु के सैनिक जो निहंग कहलाते हैं उनके बीच भांग
का चलन खूब रहा जबकि सिख धर्म किसी भी
नशे के बिलकुल खिलाफ है। निहंगों में तो अभी
नही कई जगहों पर भांग प्रसाद के रूप में मिलती है
जो कभी युद्ध की थकान मिटाने और पाचन
दुरुस्त रखने के लिए आवश्यक थी। उन लोगों ने
वीड एनर्जी का इस्तेमाल बहुत कायदे से किया।
अमेरिका में तो कई राज्यों में लीगल हो गया,
प्रेसिडेंट निक्सन के समय बनी कमेटी की राय पर
फैसला नहीं हो पाया था लेकिन ओबामा के
सकारात्मक रूख से वहां गंजेड़ियों को काफी
राहत मिली है। पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने
भी इसके समर्थन में बयान दिया और कहा की
उन्होंने खुद जवानी में इसका इस्तेमाल किया है
लेकिन भारत में कोई नेता खुलकर इसके बारे में
बोल नहीं सकता जबकि आप भाषण सुनें तो
तमाम नेता और पब्लिक डोमेन के लोग ऐसे लगते हैं
की भांग खाए हुए हैं या गांजे के सुरूर में में बोल
रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री अगर गलती से भी वीड
एनर्जी बोल गए हों तो संबंधित मंत्रालयों को
संज्ञान लेना चाहिए। कभी आपने खबर सुनी है
की गांजा पीकर किसी ने कहीं गाड़ी चढ़ा दी
या भांग के नशे में गोलीबारी कर दी या लड़की
छेड़ दी? सवाल ही नहीं है क्योंकि यह
अध्यात्मिक और इंटलेक्चुअल टाइप का नशा देता
है, अलग सी ‘हाई’ मिलती है, किक आता है। कुल
मिलाकर यही कहा जा सकता है की वीड
एनर्जी काफी समय से चलन में है, सभवतः सोलर
एनर्जी की तरह ही आदिम है।

दारू–सिगरेट की कंपनियों ने साजिश रच कर इसे
बदनाम कर दिया क्योंकि लीगल होने पर लोग
गमले में भी अपनी एनर्जी पैदा करने लगेगें फिर
बड़ी कंपनियों को पूछेगा कौन? हाँ फिर इससे
कई गुणा अधिक मुनाफे वाली नशीली वस्तुओं के
व्यापार पर भी असर पड़ेगा और वार ऑन ड्रग खुद
ही समाप्त हो जाएगा, साथ ही दारू के
दुष्परिणाम से होने वाली समस्याएं भी ख़तम हो
जायेंगी। हाँ याद रहे यह पोस्ट किसी भी
प्रकार के नशे को बढ़ावा देने के लिए नहीं है, बस
बात वीड एनर्जी की है जिसको अमेरिका
आधिकारिक रूप से पहचान चुका है लेकिन भारत
सब कुछ जानते हुए भी अनजान बना हुआ है।
वर्तमान सरकार को कांग्रेस सरकार के एक और
फैसले को पलटने की जरूरत है। जितने लोग भी
वीड एनर्जी से परिचित हैं उन्हें आगे आना
चाहिए, हाँ डॉक्टर्स की बात नहीं है और वो
तो महत्व पहचानते भी हैं और उन दवाओं का
धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं जिनमें गांजा होता है,
वही गांजा जिसको मेक्सिको से आये
शरणार्थियों से सुनकर अमेरिका ने मेरुआना
कहना शुरू किया और खो गयी पहचान हमारी,
जिस पहचान को वापस सम्मान दिलवाना भी
राष्ट्रभक्तों का संकल्प होना चाहिए। हाँ अगर
इस दिव्य औषध का अब तक नहीं सेवन किये हैं तो
ट्राई मत करियेगा।
हमने अपने मित्र को भांग खिलाइ थी भाई सॉब ने ताँडव नृत्य कराया था हमसे, आजकल वो बैगलूरू मे सॉफ्टवेयर इंजिनियर है :) कहते हैं भोपाल आवो भाई फीर कभी महादेव का ध्यान लगायेंगे |
और मेरा एक जुनीयर है जो जब भी चिलम को हाथ लगाता है तो एक नारा बोलता है, "बम शंकर टन गणेश" |
हर हर महादेव | आशा करता हुँ हमारे भाई-बन्धु इस पोस्ट को हर उस भाई-बन्धु तक पहुँचायेंगे जो इस से संबंध रखते हो |
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