आधुनिक भारत में अपनी ही जड़ों से संघर्ष:
क्या यह विडंबना नहीं है कि स्वतंत्र भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली आज भी उन नियमों से संचालित हो रही है जो अंग्रेजों ने औपनिवेशिक काल में बनाए थे?
यह ऐतिहासिक बोझ दुनिया की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति "आयुर्वेद" पर आज भी भारी पड़ रहा है, जो वैदिक है, जिसका "मूल" अथर्ववेद में है।
यह सनातनी ज्ञान है।।
1964 से पहले की नीतियां, जो ब्रिटिश शासन की देन थीं, आज भी यह तय कर रही हैं कि हम आयुर्वेद को कैसे देखें और उपयोग करें।
यह उस राष्ट्र में आयुर्वेद की क्षमता का गला घोंटने जैसा है, जो दुनिया को 'समग्र कल्याण' (Holistic Wellness) का मार्ग दिखाता है।
महर्षि चरक और पतंजलि के जिस "जड़ी बूटी" के ज्ञान का लोहा दुनिया मानती है, उसे आज अपने ही देश में लेबल पर उस "जैविक औषधि" के 'चिकित्सीय लाभ' लिखने की अनुमति नहीं है।
यहाँ तक कि "100% शाकाहारी" या "जैविक" (Organic) जैसे शब्द, जो आयुर्वेद के मूल सिद्धांत हैं, उन्हें भी नौकरशाही की लालफीताशाही में उलझा दिया जाता है।
जबकि "अरबी संस्कृति के हलाल शब्द" का उपयोग कानूनी है।।
यह स्थिति हमारी स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों और शासन व्यवस्था के बीच एक गहरी खाई को दर्शाती है; एक ऐसी खाई जिसे औपनिवेशिक शासकों ने जानबूझकर खोदा था ताकि पश्चिमी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ साबित किया जा सके।
स्वास्थ्य नीति की औपनिवेशिक नींव ;
अंग्रेजों ने अपने पश्चिम-केंद्रित' (Westernize) अहंकार में आयुर्वेद को "अवैज्ञानिक" कहकर खारिज कर दिया था, वे भारत को सपेरों का देश कहते थे।
विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी हमने 'औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम (1940)' जैसे कानूनों को ज्यों का त्यों अपना लिया।
यह कानून आज भी आयुर्वेदिक उत्पादों को "दवा" मानने के बजाय "सप्लीमेंट्स" (पूरक) मानता है, जब तक कि वे एलोपैथी के पैमानों पर खरे न उतरें।
यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी मछली की क्षमता को इस आधार पर आंकना कि वह पेड़ पर चढ़ सकती है या नहीं।
आयुर्वेद जड़ से इलाज करने और निवारक स्वास्थ्य (Preventive Health) पर जोर देता है, जबकि एलोपैथी केवल लक्षणों को दबाने पर।
दोनों बिल्कुल अलग विधा की चिकित्सा हैं।
भारतीय संस्थान आज भी 'रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल्स' (RCTs) मांगते हैं, जो रसायनों (एलोपैथी का आधार क्रूड ऑयल है) (Pharmaceuticals) के लिए तो ठीक हैं, लेकिन जैविक जड़ी-बूटियों के लिए यह पैमाना अनुचित है।
आयुर्वेद जैविक औषधि का ज्ञान है जो जलवायु और पारिस्थितिक तंत्र पर आधारित है, और एलोपैथी अजैविक "पेट्रोकेम" पर दोनों की जांच के स्टैंडर्ड एक से कैसे हो सकते हैं?
इसका परिणाम?
'जर्नल ऑफ एथनोफार्माकोलॉजी' (2021) का अध्ययन "अश्वगंधा" के गुणों की पुष्टि करता है, लेकिन हमारे भारतीय निर्माता इसे अपने उत्पाद पर लिख नहीं सकते।
छोटे किसान और वैद्य, जो पीढ़ियों से रसायन-मुक्त खेती कर रहे हैं, वे "जैविक" प्रमाणपत्र की महंगी प्रक्रिया में उलझकर रह जाते हैं और रासायनिक खेती वाले त्वरित लाभ लेते हैं, इससे आयुर्वेद का ह्रास होता है और सनातनी वैदिक ज्ञान असत्य सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व
भले ही प्रधानमंत्री और आयुष मंत्रालय आयुर्वेद को वैश्विक पटल पर लाने का प्रयास कर रहे हों, लेकिन धरातल पर पुराने कानून और अंग्रेजी सोच की वैज्ञानिक पद्धतियां इन प्रयासों को विफल कर रहे हैं।
क्या यह "मानसिक गुलामी" नहीं है?
त्रिफला जैसा साधारण और प्रभावी नुस्खा आज "पेट के रोगों की दवा" के रूप में नहीं, बल्कि केवल "वेलनेस प्रोडक्ट" के रूप में बेचा जा रहा है।
यह न केवल उपभोक्ता के विश्वास को कम करता है, बल्कि इस झूठ को भी हवा देता है कि आयुर्वेद में वैज्ञानिकता की कमी है।
सबसे बड़ी समस्या मानकीकरण (Standardization) की है।
आयुर्वेद का मूल मंत्र है कि हर व्यक्ति की 'प्रकृति' (Body type) अलग है, इसलिए इलाज भी अलग होगा। लेकिन हमारे कानून 'एक लाठी से सबको हांकने' (One-size-fits-all) की जिद पर अड़े हैं, जिससे आयुर्वेद केवल एक उत्पाद बनकर रह जाएगा, चिकित्सा नहीं।
सांस्कृतिक और धार्मिक संप्रभुता का प्रश्न
यह लड़ाई केवल नियमों की नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक संप्रभुता की है।
जब हमारे पारंपरिक वैद्यों को 'ग्रीन' या 'इको-फ्रेंडली' लिखने के लिए भी पश्चिमी मानकों वाले प्रमाणपत्र चाहिए होते हैं, तो यह मानसिक गुलामी का प्रतीक बन जाता है।
आज जब जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे देश आयुर्वेद को अपना रहे हैं, और श्रीलंका व नेपाल अपनी पारंपरिक चिकित्सा का आक्रामक प्रचार कर रहे हैं, तब भारत अपनी ही फाइलों में उलझा हुआ है।
CII की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया की 20% औषधीय वनस्पति भारत में होने के बावजूद, वैश्विक बाजार में हमारी हिस्सेदारी 5% से भी कम है।
यह हमारी सोच का "बंध्यकरण" है, यह हमारे लिए इसलिए "शर्म" की बात होनी चाहिए, क्योंकि हमे यह समझ ही नहीं आता।
आगे की राह:
आयुर्वेद का वि-औपनिवेशीकरण (Decolonizing Healthcare)
हमें आधुनिकता को नकारना नहीं है, बल्कि अपनी शर्तों पर उसे अपनाना है।
आयुष मंत्रालय और FSSAI को मिलकर ऐसे नियम बनाने होंगे जो आयुर्वेद की वैदिक और परंपरागत प्रकृति का सम्मान करें:
* लेबलिंग में सुधार: प्राचीन ग्रंथों पर आधुनिक शोधों को प्रमाण मानकर दावों को सहानुभूति के साथ देखा जाए।
* अनुसंधान: हमें एलोपैथी की तर्ज पर "क्लीनिकल ट्रायल" की आवश्यकता नहीं, हमारी औषधियां जैविक हैं ये क्रूड ऑयल से नहीं आती।
हमे भारतीय तरीके के शोध की आवश्यकता है जो आदिवासी औषधीय ज्ञान का भी सम्मान करे।
* शिक्षा: नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि आयुर्वेद केवल चूर्ण-चटनी नहीं, बल्कि "वैदिक विज्ञान" है।
'आत्मनिर्भर भारत' का नारा स्वास्थ्य क्षेत्र में तभी सार्थक होगा जब हम अपनी नीतियों को "औपनिवेशिक मानसिकता" के नियमों से मुक्त करेंगे।
आयुर्वेद अतीत का अवशेष नहीं, बल्कि भविष्य के स्वास्थ्य का समाधान है।
अब समय आ गया है कि भारत दुनिया का अनुसरण करने के बजाय नेतृत्व करे।
और अंत में: "विजया" पर हुए पश्चिम के हमले पर विचार करे और समझें यह क्यों हुआ कैसे हुआ और गोरों की कार्य पद्धति क्या है।
बस इतने से ही मानसिक गुलामी की जंजीरें टूटना शुरू हो जाएंगी।।
सचिन अवस्थी
लेखक: विश्व विजया फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं।
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